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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व tee एक अङ्ग है। प्रमाण दो है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। तर्क गम्य पदार्थों की जानकारी के लिए जो अनुमान है, वह परोक्ष के पांच रूपों में से एक है। पूर्वधारणा की यथार्थ-स्मृति आती है, उसे तर्क द्वारा साधनों की भावश्यकता नहीं होती। वह अपने आप सत्य है-प्रमाण है। यथार्थ पहिचान प्रत्यभिशा के लिए भी यही बात है। मैं जब अपने पूर्व परिचित व्यक्ति को साक्षात् पाता हूँ तब मुझे उसे जानने के लिए तर्क श्रावश्यक नहीं होता। मैं जिसके यथार्थ ज्ञान और यथार्थ-वाणी का अनुभव कर चुका, उसकी वाणी को प्रमाण मानते समय मुझे हेतु नहीं ढूंढना पड़ेगा। यथार्थ जानने वाला भी कभी और कहीं भूल कर सकता है यथार्थ कहने वाला भी कभी और कहीं असत्य बोल सकता है-इम संभावना से यदि मैं उसकी प्रत्येक वाणी को तर्क की कसौटी पर कसे बिना प्रमाण न मानू तो वह मेरी भूल होगी। मेरा विश्वासी मुझे ठगना चाहे, वहाँ मेरे लिए वह प्रमाणाभास होगा। किन्तु तर्क का सहारा लिए बिना कहीं भी वह मेरे लिए प्रमाण न बने, यह कैसे माना जाए ? यदि यह न हो तो जगत् का अधिकांश व्यवहार ही न चले ? व्यवहार में जहाँ व्यावहारिक आस की स्थिति है, वहाँ परमार्थ में पारमार्थिक प्रास-वीतराग की। किन्तु तर्क से आगे विश्वास है अवश्य । आँख से जो मैं देखता हूँ। कान से जो सुनता है, उसके लिए मुझे तर्क नहीं चाहिए। सत्य आँख और कान से परे भी है । वहाँ तर्क की पहुँच ही नहीं है। तर्क का क्षेत्र केवल कार्य-कारण की नियम बद्धता, दो वस्तुओं का निश्चित साहचर्य । एक के बाद दूसरे के आने का नियम और व्याप्य में ध्यापक के रहने का नियम है। एक शन्द में व्याति है। वह सार्वदिक और सार्वत्रिक होती है। वह अनेक काल और अनेक देश के अनेक व्यक्तियों के समान अनुभव द्वारा सृष्ट नियम है। इसलिए उसे प्रत्यक्ष, अनुमान, अागम आदि प्रमाण-परम्परा से मैंचा या एकाधिकार स्थान नहीं दिया जा सकता अतयं आशा-माझ या भागम-गम्य होता है। निरुपण या कथन की विधि निरूपण वस्तु का होता है। वस्तु के जितने रूप होते हैं उतने ही सस
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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