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________________ २६६ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व पकारक 'काल' नामक तत्त्व है। जो मूर्त है वह 'पुद्गल' द्रव्य है। जिसमें चैतन्य है वह जीव है। इनकी क्रिया या उपकारों की जो समष्टि है वह जगत् है । यह भी उपयोगितावाद है । पदार्थों के अस्तित्व के बारे में विचार करना अस्तित्ववाद या वास्तविकवाद कहलाता है। अस्तित्व की दृष्टि से पदार्थ दो हैं-चेतन और अचेतन 1 अस्तित्ववाद और उपयोगितावाद जैन - परिभाषा में दोनों के लिए एक शब्द है 'द्रव्यानुयोग' । पदार्थ के अस्तित्व और उपयोग पर विचार करने वाला समूचा सिद्धान्त इसमें समा जाता है 1 उपयोगिता के दो रूप हैं— आध्यात्मिक और जागतिक । नव तत्त्व की व्यवस्था आत्म-कल्याण के लक्ष्य से की हुई है, इसलिए यह आध्यात्मिक है । यह श्रात्म-मुक्ति के साधक बाधक तत्वों का विचार है। कर्मबद्ध श्रात्मा को जीव और कर्म-मुक्त श्रात्मा को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष साध्य है। जीव के वहाँ तक पहुँचने में पुण्य, पाप बन्ध और श्राखव ये चार तत्त्व बाधक हैं, संबर और निर्जरा- ये दो साधक हैं । जीव उसका प्रतिपक्षी तत्त्व है । षद्रव्य की व्यवस्था विश्व के सहज-संचलन या सहज नियम की दृष्टि से हुई है । एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के लिए क्या उपयोग है, यह जानकारी हमें इससे मिलती है । वास्तविकतावाद में पदार्थ के उपयोग पर कोई विचार नहीं होता। सिर्फ उसके अस्तित्व पर ही विचार होता है, इसलिए वह 'पदार्थवाद' या 'आधिमोतिकवाद' कहलाता है। दर्शन का विकास अस्तित्व और उपयोग दोनों के आधार पर हुआ है । अस्तित्व और उपयोग दोनों प्रमाण द्वारा साधे गए हैं। इसलिए प्रमाण, न्याय या तर्क के विकास के आधार भी यही दोनों हैं। पदार्थ दो प्रकार के होते हैंतर्क्स - हेतु गम्य और तर्क्स - हेतु - अगम्य । न्यायशास्त्र का मुख्य विषय हैप्रमाणमीमांसा । तर्क शास्त्र इससे भिन्न नहीं है। वह ज्ञान-विवेचन का ही
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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