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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
( ४ ) वाणी में शान का प्रामाणिक प्रतिबिम्ब - विचारों 'या लक्ष्यों की अभिव्यक्ति का यथार्थ साधन ४३ ।
(५) ज्ञेय ( संवेद्य या विषय) और ज्ञातृ ( संवित् या विषयी ) के समकालीन अस्तित्व, स्वतन्त्र अस्तित्व तथा पारस्परिक सम्बन्ध के कारण उनका विषयविषयीभाव ।
चार सिद्धान्त
( १ ) पदार्थमात्र -- परिवर्तनशील है।
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( २ ) सत् का सर्वथा नाश और सर्वथा असत् का उत्पाद नहीं होता ।
(३) जीव और पुद्गल में गति शक्ति होती है।
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( ४ ) व्यवस्था वस्तु का मूल भूत स्वभाव है ।
इनकी जड़वाद के चार सिद्धान्तों से तुलना कीजिए ।
( क ) ज्ञाता और ज्ञेय नित्य परिवर्तनशील हैं ।
(ख) सद् वस्तु का सम्पूर्ण नाश नहीं होता-पूर्ण अभाव में से सद् वस्तु उत्पन्न नहीं होती ।
( ग ) प्रत्येक वस्तु में स्वभाव - सिद्ध गति-शक्ति किंवा परिवर्तनशक्ति अवश्य रहती है।
(घ) रचना, योजना, व्यवस्था, नियमबद्धता अथवा सुसंगति वस्तु का मूलभूत स्वभाव है ४ ४ |
सत्य क्या है
भगवान् ने कहा- सत्य वही है, जो जिन प्रवेदित है - प्रत्यक्ष अनुभूति द्वारा निरूपित है ४५ | यह यथार्थवाद है, सत्य का निरूपण है किन्तु यथार्थता नहीं है— सत्य नहीं है।
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जो सत् है, वही सत्य है --जो है वही सत्य है, जो नहीं है वह सत्य नहीं है। यह अस्तित्व — सत्य, वस्तु- सत्य, स्वरूप - सत्य या ज्ञेय सत्य' है जिस वस्तु का जो सहज शुद्ध रूप है, वह सत्य है। परमाणु परमाणु रूप में सत्य है । श्रात्मा श्रात्मा रूप में सत्य है । धर्म, धर्म, आकाश भी अपने रूप में सत्य हैं। एक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श बाला । अविभाज्य पुद्गल --- यह परमाणु का सहज रूप सत्य है। बहुत सारे परमाणु मिलते हैं--स्कन्ध बन