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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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जाता है, इसलिए परमाणु पूर्ण सत्य ( त्रैकालिक सत्य ) नहीं है। परमाणुभूत-भविष्यत् कालीन स्कन्ध की दशा में उसका
दशा में परमाणु सत्य है। विभक्त रूप सत्य नहीं है ।
श्रात्मा शरीर - दशा में अर्ध सत्य है | शरीर, वाणी, मन और श्वास उसका स्वरूप नहीं है। आत्मा का स्वरूप है— अनन्त ज्ञान, अनन्त श्रानन्द, वीर्य (शक्ति), अरूप | सरूप ( सशरीर ) आत्मा वर्तमान पर्याय की अपेक्षा सत्य है ( अर्ध सत्य है ) । अरूप ( शरीर, शरीरमुक्त ) आत्मा पूर्ण सत्य ( परम सत्य या त्रैकालिक सत्य ) है । धर्म, अधर्म और आकाश ( इन aat aat का वैभाविक रूपान्तर नहीं होता। ये सदा अपने सहज रूप में ही रहते हैं -- इसलिए ) पूर्ण सत्य हैं ।
साध्य-सत्य
साध्य-सत्य स्वरूप- सत्य का ही एक प्रकार है । वस्तु सत्य व्यापक है । परमाणु में ज्ञान नहीं होता, अतः उसके लिए कुछ साध्य भी नहीं होता । वह स्वाभाविक कालमर्यादा के अनुसार कभी स्कन्ध में जुड़ जाता है और कभी उससे विलग हो जाता है ।
श्रात्मा ज्ञानशील पदार्थ है । विभाव- दशा ( शरीर - दशा) में स्वभाव ( शरीर - दशा या ज्ञान, श्रानन्द और वीर्य का पूर्ण प्रकाश ) उसका साध्य होता है । साध्य न मिलने तक यह सत्य होता है और उसके मिलने पर ( सिद्धि के पश्चात् ) वह स्वरूप सत्य के रूप में बदल जाता है ।
साध्य काल में मोक्ष सत्य होता है और श्रात्मा अर्ध सत्य । सिद्धि-दशा I में मोक्ष और आत्मा का अद्वैत ( अमेद ) हो जाता है, फिर कभी मेद नहीं होता । इसलिए मुक्त श्रात्मा का स्वरूप पूर्ण सत्य है (त्रैकालिक है, पुनरावर्तनीय है ) ।
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जैन तत्व व्यवस्था के अनुसार चेतन और अचेतन - ये दो सामान्य सत्य हैं। ये निरपेक्ष स्वरूप सत्य हैं। गति हेतुकता, स्थिति-हेतुकता, अवकाशहेतुकता, परिवर्तन हेतुकता और ग्रहण ( संयोग-वियोग ) की अपेक्षा - विभिन्न कार्यों और गुणों की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ---अचेतन