________________
२)
जैन दर्शन के मौलिक तत्व
व तत्व
विश्व के सर्व सत्यों का समावेश दो ध्रुव सत्यों-चेतन और अचेतन में होता है। शुद्ध-तत्त्व दृष्टि से चेतन और अचेतन-ये दो ही तत्त्व है।
इनके छह मेद विश्व की व्यवस्था जानने के लिए होते हैं। इनके नव भेद आत्म-साधना की साधक-बाधक दशा और साहित्य की मीमांसा के हेतु किए जाते हैं। जैन दर्शन के ध्रुवसत्य
सम्यग् दर्शन के आधार भूत तत्त्व :
(२) आत्मा है (२) नित्य है (३) कर्ता है (४) मोक्ता है (५) बन्ध है (६) मोक्ष है।
विश्व-स्थिति के आधार भूत तत्त्व :(१) पुनर्जन्म - जीव मरकर पुनरपि बार-बार जन्म लेते हैं।
(२) कर्मबन्ध-जीव सदा (प्रवाह रूपेण अनादि काल से ) निरन्तर कर्म बाँधते हैं।
(३) मोहनीय कर्मबन्ध-जीव सदा (प्रवाह रूपेण अनादि काल से) निरन्तर मोहनीय कर्म बांधते हैं।
(४) जीव अजीव का अत्यन्तामाव-ऐसा न हुआ, न भाव्य है और न होगा कि जीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए।
(५) स-स्थावर-अविच्छेद-ऐसा न तो हुआ, न माव्य है और न होगा कि गतिशील प्राणी स्थावर बन जाए। और स्थावर प्राणी गतिशील बन जाए।
(६) लोकालोक पृथक्त्व-ऐसा न तो हुआ, न भाव्य है और न होगा कि लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए।
(७) लोकालोक अन्योन्याप्रवेश-ऐसा न तो हुआ, न माव्य है और न होगा कि लोक अलोक में प्रवेश करे और अलोक लोक में प्रवेश करे।
(८) लोक और जीवों का आधार-प्राधेय सम्बन्ध-जितने क्षेत्र का नाम लोक है, उतने क्षेत्र में जीव है और जितने चेत्र में जीव है, उतने क्षेत्र का माम लोक है।