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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व ૫૦ यों की भी अवहेलना करने लगे। ऐसे समय में व्यावहारिक सम्यग् दर्शन की व्याख्या और विशाल बनी । श्राचार्य समन्त भद्र ने मद के साथ उसकी विसंगति बताते हुए कहा है- " जो धार्मिक व्यक्ति श्रष्टमद (१) जाति (२) कुल (३) बल (४) रूप (५) श्रुत (६) तप (७) ऐश्वर्य (८) लाभ से उन्मत्त होकर धर्मस्थ व्यक्तियों का अनादर करता है, वह अपने श्रात्म-धर्म का अनादर करता है । सम्यग दर्शन आदि धर्मं को धर्मात्मा ही धारण करता है । नहीं होता । सम्यग् जो धर्मात्मा है, वह महात्मा है। धार्मिक के बिना धर्म दर्शन की सम्पदा जिसे मिली है, वह भंगी भी देव है। तीर्थकरों ने उसे देव माना है। राख से ढकी हुई आग का तेज तिमिर नहीं बनता, वह ज्योतिपुञ्ज ही रहता है३८ । · श्राचार्य भिक्षु ने कहा है ---- वे व्यक्ति विरले ही होते हैं, जिनके घट में सम्यकत्व रम रहा हो। जिस के हृदय में सम्यकत्व-सूर्य का उदय होता है, वह प्रकाश से भर जाता है, उसका अन्धकार चला जाता है। 1 सभी खानों में हीरे नहीं मिलते, सर्वत्र चन्दन नहीं होता, रत्न- राशि सर्वत्र नहीं मिलती, सभी सर्प 'मणिधर' नहीं होते, सभी लब्धि ( विशेष शक्ति ) के धारक नहीं होते, बन्धन-मुक्त सभी नहीं होते, सभी सिंह 'केसरी' नहीं होते, सभी साधु 'साधु' नहीं होते, उसी प्रकार सभी जीव सम्यक्त्वी नहीं होते । नव-तत्त्व के सही श्रद्धान से मिथ्यात्त्व ( १० मिथ्यात्व ) का नाश होता है । यही सम्यकत्व का प्रवेश द्वार है । 1 सम्यकत्व के श्राजाने पर श्रावक-धर्म या साधु-धर्म का पालन सहज हो जाता है, कर्म-बन्धन टूटने लगते हैं और वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। तथ्य ( भावों ध्रुव सत्यों ) की अन्वेषणा, प्राप्ति और प्रतीति जो है, वह सम्यकत्व है, यह व्यावहारिक सम्यग् दर्शन की परिभाषा है। इसका आधार तत्वों की सम्यग् श्रद्धा है। दर्शन-पुरुष की तत्त्व-श्रद्धा अपने आप सम्यक् हो जाती है । तत्त्व श्रद्धा का विपर्यय आग्रह और श्रभिनिवेश से होता है। अभिनिवेश का हेतु तीव्र कषाय है । दर्शन-पुरुष का कषाय मन्द हो जाता है, उसमें आमह का भाव नहीं रहता। वह सत्य को सरल और सहज भाव से पकड़ लेता है 1 1
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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