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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व सम्यग-दर्शन की व्यावहारिक पहिचान , सम्यग् दर्शन आध्यात्मिक शुद्धि है । वह बुद्धिगम्य वस्तु नहीं है। फिर भी उसकी पहिचान के कुछ व्यावहारिक लक्षण बतलाए हैं।
सम्यक्त्व श्रद्धा के तीन लक्षण :(१) परमार्थ संस्तव.. परम सत्य के अन्वेषण की रुचि ।
(२) सुदृढ़ परमार्थ सेवन.. परम सत्य के उपासक का संसर्ग या मिले हुए सत्य का आचरण ।
(३) कुदर्शन वर्जना-कुमार्ग से दूर रहने की दृढ़ आस्था ।
सत्यान्वेषी या सत्यशील और असत्यविरत जो हो तो जाना सकता है कि यह सम्यग दर्शन-पुरुष है। पांच लक्षण
(१) शम.. कषाय उपशमन (२) संवेग...मोक्ष की अभिलाषा (३) निर्वेद...संसार से विरक्ति (४) अनुकम्पा.. प्राणीमात्र के प्रति कृपाभाव, सर्वभूत मैत्री
प्रात्मौपम्यभाव। (५) आस्तिक्य...आत्मा में निष्ठा। सम्यक् दर्शन का फल
गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता का क्या लाभ है ?
भगवान् गौतम ! दर्शन-सम्पदा से विपरीत दर्शन का अन्त होता है। वर्शन सम्पन्न व्यक्ति यथार्थ द्रष्टा बन जाता है। उसमें सत्य की लौ जलती है, बह फिर बुझती नहीं। वह अनुत्तर-शान-धारा से आत्मा को भावित किए रहता है। यह आध्यात्मिक फल है। व्यावहारिक फल यह है कि सम्यम् दशी देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु-बन्ध नहीं करता । महत्व
भगवान् महावीर का दर्शन गुण पर आश्रित था। उन्होंने बाहरी समदा के कारण किसी को महत्त्व नहीं दिया । परिवर्तित युग में जैन धर्म भी मल्लाभित होने समा। जाति-मद से मदोन्मत्त बने लोग समान धर्मी भाइ