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जैन दर्शन के मौलिक तत्व सम्यग दर्शन का प्राप्ति-क्रम और लब्धि-प्रक्रिया ___ सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के तीन कारण हैं :--दर्शन-मोह के परमाणुओं का (१) पूर्ण उपरामन, (२) अपूर्ण विलय (३) पूर्ण क्लिय । इनसे प्रगट होने वाला सम्यग दर्शन क्रमशः (१) औपशमिक सम्यक्त्व, (२) क्षायोपशगिक सम्यक्त्व, (३) क्षायिक सम्यक्त्व-कहलाता है। इनका प्राति-क्रम निश्चित नहीं है। प्रासि का पौर्वापर्य भी नहीं है। पहले पहल औपशमिकसम्यग दर्शन भी हो सकता है। क्षायौपथमिक भी और क्षायिक भी। . अनादि मिथ्या दृष्टि व्यक्ति (जो कभी भी सम्यग दर्शनी नहीं बना) अशात कष्ट सहते-सहते कुछ उदयाभिमुख होता है, संसार-परावर्तन की मर्यादा सीमित रह जाती है, कर्मावरण कुछ क्षीण होता है, दुःखाभिघात से संतस हो सुख की ओर मुड़ना चाहता है, तब उसे आत्म-जागरण को एक स्पष्ट रेखा मिलती है। उसके परिणामों (विचारों) में एक तीच मान्दोलन शुरू होता है। पहले चरण में राग-द्वेष की दुर्भद्य प्रन्थि (जिसे तोड़े बिना सम्यग् दर्शन । प्रगट नहीं होता) के समीप पहुँचता है। दूसरे चरण में वह उसे तोड़ने का प्रयत्न करता है। विशुद्ध परिणाम बाला प्राणी वहाँ मिथ्यात्वप्रन्थि के घटक पुद्गलों का शोधन कर उनकी मादकता या मोहकता को निष्प्रभ बना क्षायोपक्षमिक सम्यग् दर्शनी बन जाता है। मन्दविशुद्ध परिणाम वाला व्यक्ति वैसा नहीं कर सकता। वह आगे चलता है। तीसरे चरण में पहुँच मिथ्यात्व मोह के परमाणुनों को दो भागों में विभक्त कर डालता है। पहला भाग अल्प कालवेद्य और दूसरा बहु-कालवेद्य (अल्प स्थितिक और दीर्घ स्थितिक) होता है। इस प्रकार यहाँ दोनों स्थितियों के बीच में व्यवधान (अन्तर ) हो जाता है। पहला पुल भोग लिया जाता है । ( उदीरणा द्वारा शीघ्र उदय में श्रा नष्ट हो जाता है) दूसरा पुज उपशान्त (निरुद-उदय ) रहता है। ऐसा होने पर चौथे चरण में (अन्तर-करण के पहले समय में) औपशमिक सम्यग् दर्शन भगट होता है ।
यथा प्रवृति :- अनादि काल से जैसी प्रवृति है वैसी की वैसी बनी रहे वह 'यथा प्रति' है। संसार का मूल मोह-कर्म है। उसके वेध परमाण दीर्घ-स्थितिक रोते हैं,