________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं नए तबतक 'यथाप्रवृत्ति' करण से आगे गति नहीं होती। अकाम-निर्जरा तथा भवस्थिति के परिपाक होने से कषाय मन्द होता है। मोह-कर्म की स्थिति देशोन कोडाकोद सागर जितनी रहती है, आयुवर्जित शेष कर्मों की भी इतनी ही रहती है, तब परिणाम-शुद्धि का कम आगे बढ़ता है। फल स्वरूप 'अपूर्व करण होता है-पहले कभी नहीं हुई, वैसी पाल्म-दर्शन की प्रेरणा होती है। किन्तु इसमें आत्म-दर्शन नहीं होता। यह धारा और आगे बढ़ती है-अनिवृत्तिकरण होता है। यह फल-प्राप्ति के बिना निवृत्त नहीं होता। इसमें आत्मदर्शन हो जाता है। मार्ग लाभ
पथिक चला। मार्ग हाथ नहीं लगा। इधर-उधर भटकता रहा। आखिर अपने आप पथ पर आ गया। यह नैसर्गिक मार्ग-लाम है।
दूसरा पथभ्रष्ट व्यक्ति इधर उधर भटकता रहा, मार्ग नहीं मिला। इतने में दूसरा व्यक्ति दीखा। उससे पूछा और मार्ग मिल गया। यह प्राधिगमिक मार्ग-लाम है। आरोग्य लाभ
रोग हुआ। दवा नहीं ली। रोग की स्थिति पकी। वह मिट गया। आरोग्य हुआ। यह नैसर्गिक आरोग्य-लाभ है।
रोग हुआ। सहा नहीं गया। वैद्य के पास गया। दवा ली, वह मिट गया। यह प्रायोगिक आरोग्य-लाम है। सम्यग दर्शन-लाभ
अनादि काल से जीव संसार में भ्रमण करता रहा। सम्यग -दर्शन नहीं हुना-मात्म-विकास का मार्ग नहीं मिला। संसार-भ्रमण की स्थिति पकी। पिसते-घिसते पत्थर चिकना, गोल बनता है, वैसे थपेड़े खाते-खाते कर्मावरण शिथिल हुआ, आत्म-दर्शन की रुचि जाग उठी। यह नैसर्गिक सम्यग वर्जन लाम है।
कष्टों से तिलमिला उठा। त्रिविध ताप से संतम हो गया। शान्ति का उपाय नहीं सूझा । मार्ग-द्रष्टा का योग मिला, प्रथन किया। कर्म का आवरण हटा । बाल्म-दर्शन की रुचि जाग ठी। यह आधिगमिक सम्यग् दर्शन . खाम है।