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. जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं (१) निसर्ग-रुचि,
(६) अभिगम-रुचि, (२) अधिगम-रुचि,
(७) विस्तार-रुचि, (३) आशा-रुचि,
(८) क्रिया-रुचि, (४) सूत्र-रुचि,
(६) संक्षेप-रुचि, (५) बीज-रुचि,
(१०) धर्म रुचि। (१) जिस व्यक्ति की वीतराग प्ररूपित चार तथ्यों-(१) बन्ध (२) बन्ध-हेतु (३) मोक्ष (४) मोक्ष-हेतु पर अथवा (१) द्रव्य (२) क्षेत्र (३) काल (४) भाव-इन चार दृष्टि-बिन्दुओं द्वारा उन पर सहज भद्धा होती है, वह निसर्ग-रुचि है।
(२) सत्य की वह श्रद्धा जो दूसरों के उपदेश से मिलती है, वह अधिगम रुचि या उपदेश-रुचि है।
(३) जिसमें राग, द्वेष, मोह, अज्ञान की कमी होती है और दुराग्रह से दूर रहने के कारण वीतराग की श्राशा को सहज स्वीकार करता है, उसकी श्रद्धा आशा-रुचि है।
(४) सूत्र पढ़ने से जिसे श्रद्धा-लाभ होता है, वह सूत्र-रुचि है। (५) थोड़ा जानने मात्र से जो रुचि फैल जाती है, वह बीज-रुचि है।
(६) अर्थ सहित विशाल श्रुत-राशि को पाने की श्रद्धा अभिगमरुचि है।
(७) सत्य के सब पहलुओं को पकड़ने वाली सर्वांगीण दृष्टि विस्ताररुचि है।
(८) क्रिया-प्राचार की निष्ठा क्रिया-रुचि है।
(६) जो व्यक्ति असत्-मतवाद में फंसा हुआ भी नहीं है और सत्य-बाद में विशारद भी नहीं है उसकी सम्यग दृष्टि को संक्षेप-रुचि कहा जाता है।
(१०) धर्म (श्रुत और चारित्र ) में जो आस्था-बन्ध होता है, वह धर्मरुचि है।
प्राणी मात्र में मिलने वाले योग्यता के तरतमभाव और उनके कारण होनेवाले रुचि वैचिन्म के आधार पर यह वर्गीकरण हुआ है।