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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
(२) संवेग (३) निर्वेद (४) अनुकम्पा और (५) नास्तिक्य | धर्म की
श्रुति से आस्तिक्य दृढ़ होता है ।
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श्रास्तिक्य का फल है - अनुकम्पा, अक्रूरता या श्रहिंसा | अहिंसा का फल है - निर्वेद संसार बिरक्ति, भोग- खिन्नता । भोग से खिन्न होने का फल है— संवेग - मोक्ष की अभिलाषा - धर्म - श्रद्धा धर्म-भद्धा का फल है--शम- तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ का विलय और नश्वर सुख के प्रति विराग और शाश्वत सुख के प्रति अनुराग " लोक में सार यही है ।
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साधना-पथ
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"हंसु विज्जा चरण पमोक्ख” सूत्र'
... "विद्या और चरित्र -ये मोक्ष है”- ।
सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यक् चारित्र - ये साधना के तीन अङ्ग . हैं। केवल सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान या सम्यक् चारित्र से साध्य की सिद्धि नहीं होती । दर्शन, ज्ञान और चारित्र-ये तीनों निरावरण ( क्षायिक) बन भविष्य को विशुद्ध बना डालते हैं। अतीत की कर्म-राशि को धोने के लिए तपस्या है ।
शारीरिक दृष्टि से उक्त तीनों की अपेक्षा तपस्या का मार्ग कठोर है । पर / यह भी सच है- --कष्ट सहे बिना श्रात्म-हित का लाभ नहीं होता १" |
महात्मा बुद्ध ने तपस्या की उपेक्षा की । ध्यान को ही निर्वाण का मुख्य साधन माना । भगवान् महावीर ने ध्यान और तपस्या- दोनों को मुख्य स्थान दिया । यूं तो ध्यान भी तपस्या है, किन्तु श्राहार-त्याग को भी उन्होंने गौथ नहीं किया । उसका जितनी मात्रा और जितने रूपों में जैन साधकों में विकास हुआ, उतना दूसरों में नहीं यह कहना अत्युक्ति नहीं ।
तपस्या आत्म शुद्धि के लिए है। इसलिए तपस्या की मर्यादा यही है कि वह दन्द्रिय और मानस विजय की साधक रहे, तब तक की जाए। तपस्या कितनी लम्बी हो—- इसका मान-दण्ड अपनी-अपनी शक्ति और विरक्ति है । मन खिन्न न हो, प्रा ध्यान न बढ़े, जब तक तपस्या हो वही मस मर्यादा