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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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है" " । बिरकि काल में उपवास से अनशन तक की तपस्या श्रदेय है। उसके बिना वे आत्म-वञ्चना, या आत्म-हत्या के साधन बन जाते हैं।
संसार और मोक्ष
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जैन-दृष्टि के अनुसार राग-द्वेष ही संसार है। ये दोनों कर्म-बीज हैं" । ये दोनों मोह से पैदा होते हैं १५५ मोह के दो मेद हैं- (१) दर्शन- मोह (२) चारित्र मोह | दर्शन- मोह तात्विक दृष्टि का विपर्यास है। यही संसार - भ्रमण की मूल जड़ है । सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग् ज्ञान नहीं होता । सम्यग्-शान के बिना सम्यक चारित्र, नहीं होता, सम्यक चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता 1
चारित्र मोह श्राचरण की शुद्धि नहीं होने देता। इससे राग-द्वेष तीव्र बनते हैं, राग-द्वेष से कर्म और कर्म से संसार - इस प्रकार यह चक्र निरन्तर घूमता रहता है 1
कर्म-य
इन्द्रिय
विषय- ग्रहण
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अशुद्धभाव
DAIDA
कर्म-श्र