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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १२३१ ये गुण विषय है। विषय के आसेवन का फल है-संग। संग का फल है-मोह। मोह का फल है-बहिर्-दर्शन (दृश्य जगत् में आस्था) बहिर्-दर्शन का फल है--'बहिर्-शान' (श्य जगत् का शान)। 'बहिर्-शान' का फल है-'बहिर्-विहार' (दृश्य जगत् में रमण)।
इसकी सार-साधना है श्य-जगत् का विकास, उन्नयन और भोग।
सुखाभास में सुख की आस्था, नश्वर के प्रति अनश्वर का सा अनुराग, अहित में हित की सी गति, अभक्ष्य में भक्ष्य का-सा भाव, अकर्तव्य में कर्तव्य की-सी प्रेरणा~ये इनके विपाक है।
विचारणा के प्रौढ़-काल में मनुष्य ने समझा-जो परिणाम-भद्र, स्थिर और शाश्वत है, वही सार है। इसको संज्ञा-'विवेक-दर्शन' है। विवेक-दर्शन का फल है-विषय-त्याग । विषय-त्याग का फल है-असंग। असंग का फल है-निर्मोहता। निर्मोहता का फल है-अन्तर्-दर्शन। अन्तर्-दर्शन का फल है-अन्तर्-शान । अन्तर्-शान का फल है-अन्तर्-विहार ।
इस रन-त्रयी का समन्वित-फल है-आत्म-स्वरूप की उपलब्धि-मोक्ष या आत्मा का पूर्ण विकास-मुक्ति ।
भगवान् ने कहा-गौतम ! यह आत्मा (अदृश्य-जगत् ) ही शाश्वत सुखानुभूति का केन्द्र है। वह स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द से अतीत है इसलिए अदृश्य, अपौद्गलिक, अभौतिक है। वह चिन्मय स्वभाव में उपयुक्त है, इसलिए शाश्वत सुखानुभूति का केन्द्र है।
फलित की भाषा में साध्य की दृष्टि से सार है-आत्मा की उपलब्धि और साधन की दृष्टि से सार है-रजत्रयी। .
इसीलिए भगवान् ने कहा-ौतम ! धर्म की अति कठिन है, धर्म की भला कठिनतर है, धर्म का आचरण कठिनतम है। . धर्म-भदा की संशा 'अन्तरष्टि ' है। उसके पाँच लक्षण -(१)सम