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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व .. (२०५ वैक्रिय वर्गणा-छोटा-बड़ा, हल्का-भारी, दृश्य-अदृश्य आदि विविध कियाएं करने में समर्थ शरीर के योग्य पुद्गल-समूह । आहारक वर्गणा-योग-शक्तिजन्य शरीर के योग्य पुद्गल समूह । तैजस वर्गणा--विद्युत-परमाणु-समूह ( Electrical Molecues ) कार्मण वर्गणा-जीवों की अत् असत् क्रिया के प्रतिफल में बनने वाला पुद्गल-समूह श्वाशोच्छवास वर्गणा-श्रान-प्राण योग्य पुद्गल-समूह वचन वर्गणा-भाषा के योग्य पुदगल-समूह । मन वर्गणा-चिन्तन में सहायक बनने वाला पुद्गल समूह । इन वर्गणाओं के अवयव क्रमशः सूक्ष्म और अति प्रचय वाले होते हैं। एक पौगलिक पदार्थ का दूसरे पौद्गलिक पदार्थ के रूप में परिवर्तन होता है । वर्गणा का वर्गणान्तर के रूप में परिवर्तन होना भी जैन-दृष्टि-सम्मत है। पहली चार वर्गणाएं अष्टस्पशी-स्थूल स्कन्ध हैं। वे हल्की-भारी, मृदुकठोर भी होती हैं। कार्मण, भाषा और मन-ये तीन वर्गणाएं चतुःस्पशीसूक्ष्म स्कन्ध हैं। इनमें केवल शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष-ये चार ही स्पर्श होते हैं। गुरु, लघु, मृदु, कठिन-ये चार स्पर्श नहीं होते। श्वासोच्छवास वर्गणा चतुःस्पशी और अष्ट-स्पों दोनों प्रकार के होते हैं। परमाणु-स्कन्ध की अवस्था परमाणु स्कन्ध रूप में परिणत होते हैं, तब उनकी दस अवस्थाएँ-कार्य हमें उपलब्ध होती है: १-शब्द'५ ३-सौम्य ४-स्थौल्य ५-संस्थान ६-मेद ७-तम
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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