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________________ २०६ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व ६ श्रातप १० उद्योत ये पौगलिक कार्य तीन प्रकार के होते हैं : १ प्रायोगिक १६ २ मिश्र ३ वैसक इनका क्रमशः अर्थ है— जीव के प्रयत्न से बनने वाली वस्तुए जीव, के प्रयत्न और स्वभाव दोनों के संयोग से बनने वाली वस्तुएं तथा स्वभाव से बनने वाली वस्तुएं । शब्द 9 19 जैन दार्शनिकों ने शब्द को केवल पौद्गलिक कहकर ही विश्राम नहीं लिया किन्तु उसकी उत्पत्ति, शीघ्रगति, १८ लोक व्यापित्व, ९९ स्थायित्व, आदि विभिन्न पहलुओं पर पूरा प्रकाश डाला है १०० | तार का सम्बन्ध न होते हुए भी सुघोषा घण्टा का शब्द असंख्य योजन की दूरी पर रही हुईं घटाओं में प्रतिध्वनित होता है यह विवेचन उस समय का है जबकि 'रेडियो' वायरलेस आदि का अनुसन्धान नहीं हुआ था। हमारा शब्द क्षणमात्र में लोकव्यापी बन जाता है, यह सिद्धान्त भी आज से ढाई हजार वर्ष पहले ही प्रतिपादित हो चुका था । १८ शब्द पुदुगल-स्कन्धों के संघात और भेद से उत्पन्न होता है । उसके भाषा शब्द ( अक्षर सहित और अक्षर रहित ), नो भाषा शब्द ( प्रतोद्य शब्द और नो तो शब्द ) आदि अनेक भेद हैं । बक्ता बोलने के पूर्व भाषा - परमाणुओं को ग्रहण करता है, भाषा के रूप में उनका परिणमन करता है और तीसरी अवस्था है उत्सर्जन १०२ उत्सर्जन के द्वारा बाहर निकले हुए भाषा - पुद्गल श्राकाश में फैलते हैं । वक्ता का प्रयक्ष अगर मन्द है तो वे पुद्गल अभिन्न रहकर 'जल तरंग - न्याय' से असंख्य योजन तक फैलकर शक्तिहीन हो जाते हैं। और यदि वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो वे भिन्न होकर दूसरे असंख्य स्कन्धों को ग्रहण करते-करते अति सूक्ष्म काल में लोकान्त तक चले जाते हैं। .
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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