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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
११ प्राचार्य विबसेन ने महान् वार्किक होते हुए भी शुकवाद के विषय में विचार .. व्यक्त करते हुए लिखा है कि "श्रेयस् और बाद की दिशाएं भिन्न है।" __ भारत में पारस्परिक क्रोिध बढ़ाने में शुक तर्कवाद का प्रमुख हाथ है। "तकी प्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः, नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्"-युधिष्ठिर के ये उद्गार तर्फ की अस्थिरता और मतवादों की बहुलता से उत्पन्न हुई जटिलता के सूचक है।३। मध्यस्थ वृत्तिकाले आचार्य जहाँ तर्क की उपयोगिता मानते थे, वहाँ शुष्क तर्कवाद के विरोधी भी थे।
प्रस्तुत विषय का उपसंहार करने के पूर्व हमें उन पर दृष्टि डालनी होगी, जो सत्य के दो रूप हमें इस विवरण से मिलते हैं-(१) आगम को प्रमाण मानने वालों के मतानुमार जो सर्वश ने कहा है वह तथा जो सर्वशकथित और युक्ति द्वारा समर्थित है वह सत्य है । (२) श्रागम को प्रमाण न मानने वालों के मतानुसार जो तर्कसिद्ध है, वही सत्य है। किन्न सूक्ष्म, व्यवहित, अतीन्द्रिय तथा स्वभावसिद्ध पदार्थों को जानकारी के लिए युक्ति कहाँ तक कार्य कर सकती है, यह श्रद्धा को सर्वथा अस्वीकार करनेवालों के लिए चिन्तनीय है । हम तर्क की ऐकान्तिकता को दूर कर दें तो वह सत्यसन्धानात्मक प्रवृत्ति के लिए दिव्य-चतु है। धर्म-दर्शन प्रात्म-शुद्धि और तत्त्व-व्यवस्था के लिए है, आत्मवञ्चना या दूसरों को जाल में फंसाने के लिए नहीं, इसीलिए दर्शन का क्षेत्र सत्य का अन्वेषण होना चाहिए। भगवान् महावीर के शब्दों में "सत्य ही लोक में मारभूत है५५।" उपनिषदकार के शब्दों में "सत्य ही ब्रह्मविद्या का अधिष्ठान और परम लक्ष्य है५१ ।" "श्रात्महितेच्छु पुरुष असत्य चाहे वह कहीं हो, को छोड़ सत्य को ग्रहण करे५७ ।" कवि भोज यति की यह माध्यस्थ्यपूर्ण उक्ति प्रत्येक तार्किक के लिए मननीय है। दर्शनका मूल
तार्किक विचारपद्धति, तत्त्वज्ञान५८, विचारप्रयोजकशान' अथवा परीक्षा-विधि का नाम दर्शन है। उसका मूल उद्गम कोई एक वस्तु या सिद्धान्त होता है। जिस वस्तु या सिद्धान्त को लेकर यौकिक विचार किया जाए. उसीका वह (विचार) दर्शन बन जाता है-जैसे राजनीति-दर्शन, समाज-दर्शन, आत्म-दर्शन (.धर्म-दर्शन ) आदि-आदि। . .