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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व यह सामान्य स्थिति या आधुनिक स्थिति है। पुरानी परिभाषा इतनी व्यापक नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि के आधार पर यह कहा जा सकता है कि दर्शन शब्द का प्रयोग सबसे पहले 'प्रात्मा से सम्बन्ध रखने वाले विचार' के अर्थ में हुआ है। दर्शन यानी वह तत्त्व-शान जो आत्मा, कर्म, धर्म, स्वर्ग, नरक आदि का विचार करे। ___ आगे चलकर बृहस्पति का लोकायत मत और अजितकेश कम्बली का उच्छेदवाद तथा तजीव-तच्छरीरवाद जैसी नास्तिक विचार-धाराए सामने
आई। तब दर्शन का अर्थ कुछ व्यापक हो गया। वह सिर्फ आत्मा से ही चिपटा न रह सका। दर्शन यानी विश्व की मीमांसा ( अस्तित्व या नास्तित्व का विचार ) अथवा सत्य-शोध का साधन । पाश्चात्य दार्शनिकों की विशेषतः कार्लमार्क्स की विचारधारा के आविर्भाव ने दर्शन का क्षेत्र और अधिक व्यापक बना दिया। जैसा कि मार्स ने कहा है-"दार्शनिकों ने जगत् को समझने की चेष्टा की है, प्रश्न यह है कि उसका परिवर्तन कैसे किया जाए२" मार्स-दर्शन विश्व और समाज दोनों के तत्त्वों का विचार करता है। वह विश्व को समझने की अपेक्षा समाज को बदलने में दर्शन की अधिक सफलता मानता है। आस्तिको ने समाज पर कुछ भी विचार नहीं किया, यह तो नहीं, किन्तु हाँ धर्म कर्म की भूमिका से हटकर उन्होंने समाज को नहीं तोला । उन्होने अभ्युदय की सर्वथा उपेक्षा नहीं की फिर भी उनका अन्तिम लक्ष्य निःश्रेयस रहा। कहा भी है
यदाभ्युदयिकञ्चैव, श्रेयसिकमेव च।
सुखं साधयितुं मार्ग, दर्शयेत् तद् हि दर्शनम् ॥ नास्तिक धर्म कर्म पर तो नहीं रुके, किन्तु फिर भी उन्हें समाज परिवर्तन की बात नहीं सूझी । उनका पक्ष प्रायः खण्डनात्मक ही रहा । मार्क्स ने समाज को बदलने के लिए ही समाज को देखा। शास्तिकों का दर्शन समाज से भागे चलता है। उसका लक्ष्य है शरीरमुक्ति पूर्णस्वतन्त्रता-मोच।
नास्तिकों का दर्शन ऐहिक सुख-सुविधाओं के उपमोग में कोई खामी न रहे, इसलिए आत्मा का उच्छेद. साधकर रुक जाता है। मार्क्स के द्वन्दात्मक