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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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भगवान् महावीर के समय में ही ३६३ मतवादों का उल्लेख मिलता है। बाद में उनकी शाखा प्रशाखाओं का विस्तार होता गया । स्थिति ऐसी बनी कि आगम की साक्षी से अपने सिद्धान्तों की सचाई बनाए रखना कठिन हो गया। तब प्रायः सभी प्रमुख मतवादों ने अपने तत्त्वों को व्यवस्थित करने के लिए युक्ति का सहारा लिया । “विज्ञानमय आत्मा का भद्धा ही सिर है४२” यह सूत्र "वेदवाणी की प्रकृति बुद्धिपूर्वक है” इससे जुड़ गया * " । " जो द्विज धर्म के मूल श्रुति और स्मृति का तर्कशास्त्र के सहारे अपमान करता है वह नास्तिक और वेदनिन्दक है, साधुजनों को उसे समाज से निकाल देना चाहिए ४४ ।" इसका स्थान गौण होता चला गया और "जो तर्क से वेदार्थ का अनुसन्धान करता है, वही धर्म को जानता है, दूसरा नहीं" इसका स्थान प्रमुख हो चला ४५५ आगमों की सत्यता का भाग्य तर्क के हाथ में श्रा गया। चारों ओर 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' यह उक्ति गुंजने लगी । " वही धर्म सत्य माना जाने लगा, जो कष, छेद और ताप सह सके ४६ " परीक्षा के सामने अमुक व्यक्ति या अमुक व्यक्ति की वाणी का आधार नहीं रहा, वहाँ व्यक्ति के आगे युक्ति की उपाधि लगानी पड़ी - 'युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ४७।'
भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध या महर्षि व्यास की वाणी है, इसलिए सत्य है या इसलिए मानो, यह बात गौण हो गई । हमारा सिद्धान्त युक्तियुक्त है, इसलिए सत्य है इसका प्राधान्य हो गया ४८ |
तर्क का दुरुपयोग
ज्यों-ज्यों धार्मिकों में मत विस्तार की भावना बढ़ती गई, त्यों-त्यों तर्क का क्षेत्र व्यापक बनता चला गया। न्यायसूत्रकार ने वाद, जल्प और वितण्डा को तत्त्व बताया ४९ | "वाद को तो प्रायः सभी दर्शनों में स्थान मिला ५० | जय-पराजय की व्यवस्था भी मान्य हुई भले ही उसके उद्देश्य में कुछ अन्तर रहा हो । श्राचार्य और शिष्य के बीच होनेवाली तत्त्वचर्चा के क्षेत्र में बाद फिर भी विशुद्ध रहा। किन्तु जहाँ दो विरोधी मतानुयायियों में चर्चा होती, वहाँ बाद अधर्मवाद से भी अधिक विकृत बन जाता । मण्डनमिश्र और शङ्कराचार्य के बीच हुए वाद का वर्णन इसका ज्वलन्त प्रमाण है 191