________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व
[s
3<
जानने के लिए श्रागम-ये दोनों मिल हमारी सत्योन्मुख दृष्टि को पूर्ण बनाते है"।" यहाँ हमें अतीन्द्रिय को श्रहेतुगम्य पदार्थ के अर्थ में लेना होगा अन्यथा विषय की संगति नहीं होती क्योंकि युक्ति के द्वारा भी बहुत सारे अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं। सिर्फ श्रहेतुगम्य पदार्थ ही ऐसे हैं, जहाँ कि युक्ति कोई काम नहीं करती। हमारी दृष्टि के दो अङ्गों का आधार भावों की द्विविधता है। शेयत्त्र की अपेक्षा पदार्थ दो भागों में विभक्त होते है--हेतुगभ्य और अहेतुगम्य १८ । जीव का अस्तित्व हेतुराभ्य है । स्वसंवेदन - प्रत्यक्ष, अनुमान श्रादि प्रमाणों से उसकी सिद्धि होती है। रूप को देखकर रम का अनुमान, सघन बादलों को देखकर वर्षा का अनुमान होता है, यह हेतुगम्य है। पृथ्वीकायिक जीव श्वास लेते हैं, यह श्रहेतुगम्य... ( श्रागमगम्य ) है भव्य जीव मोक्ष नहीं जाते किन्तु क्यों नहीं जाते, इसका युक्ति के द्वारा कोई कारण नहीं बताया जा सकता । सामान्य युक्ति में भी कहा जाता है'स्वभावे तार्किका भग्नाः - "खभाव के सामने कोई प्रश्न नहीं होता । श्रमि जलती है, आकाश नहीं यहाँ तर्क के लिए स्थान नहीं है" ।"
1
--
आगम और तर्क का जो पृथक-पृथक क्षेत्र बतलाया है, उसको मानकर चले बिना हमें सत्य का दर्शन नहीं हो सकता । वैदिक साहित्य में भी सम्पूर्ण दृष्टि के लिए उपदेश और तर्कपूर्ण मनन तथा निदिध्यासन की श्रावश्यकता बतलाई है। जहाँ श्रद्धा या तर्क का अतिरंजन होता है, वहाँ ऐकान्तिकता श्रा जाती है। उससे अभिनिवेश, आग्रह या मिथ्यात्व पनपता है । इसीलिए आचार्यों ने बताया है कि "जो हेतुवाद के पक्ष में हेतु का प्रयोग करता है, आगम के पक्ष में आगमिक है, वही स्वसिद्धान्त का जानकार है । जो इससे विपरीत चलता है, वह सिद्धान्त का विराधक है ।" आगम तर्क की कसौटी पर
यदि कोई एक ही द्रष्टा ऋषि या एक ही प्रकार के आगम होते तो स्यात् श्रागमों को तर्क की कसौटी पर चढ़ने की घड़ी न आती । किन्तु अनेक मतवाद है, अनेक ऋषि । किसकी बात मानें किसकी नहीं, यह प्रश्न लोगों के सामने आया । धार्मिक मतवादों के इस पारस्परिक संघर्ष में दर्शन का विकास हुआ।