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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जाता रहा। ऋषि अपनी स्वतन्त्र वाणी में बोलते हैं-"मैं यों कहता हूँ " दार्शनिक युग में यह बदल गया। दार्शनिक बोलता है इसलिए यह वो है।" आगम-युग श्रद्धा-प्रधान था और दर्शन-युग परीक्षा-प्रधान । आगम-युग में परीक्षा की और दर्शन-युग में श्रद्धा की अत्यन्त उपेक्षा नहीं हुई। हो भी नहीं सकती। इसी बात की सूचना के लिए ही यहाँ श्रद्धा और परीक्षा के आगे प्रधान शब्द का प्रयोग किया गया है। आगम में प्रमाण के लिए पर्याप्त स्थान सुरक्षित है। जहाँ हमें अाज्ञारुचि एवं संक्षेपरुचि" का दर्शन होता है, वहाँ विस्ताररुचि भी उपलब्ध होती है । इन रुचियों के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि दर्शन-युग या आगम युग अमुकअमुक समय नहीं किन्तु व्यक्तियों की योग्यता है। दार्शनिक युग अर्थात् विस्तार-रुचि की योग्यतावाला व्यक्ति प्रागम युग अर्थात् प्राशरुचि या संपरुचिवाला व्यक्ति । प्रकारान्तर से देखें तो दार्शनिक युग यानी विस्तार. रुचि, श्रागमिक यानी आज्ञाचि। दर्शन के हेतु बतलाते हुए वैदिक ग्रन्थकारों ने लिखा है-"श्रौत वाक्य सुनना, युक्तिद्वारा उनका मनन करना, मनन के बाद सतत-चिन्तन करना-ये सब दर्शन के हेतु है।५।" विस्ताररुचि, की व्याख्या में जैनसूत्र कहते हैं-"द्रव्यों के सब भाव यानी विविध पहलू प्रत्यक्ष, परोक्ष आदि प्रमाण एवं नैगम आदि नय-समीक्षक दृष्टियों से जो जानता है, वह विस्ताररुचि है।" इसलिए, यह व्याप्ति बन सकती है कि श्रागम में दर्शन है और दर्शन में आगम। तात्पर्य की दृष्टि से देखें तो अल्पबुद्धि व्यक्ति के लिए, आज भी श्रागम-युग है और विशद-बुद्धि व्यक्ति के लिए पहले भी दर्शन-युग था। किन्तु एकान्ततः यो मान लेना भी संगत नहीं होता। चाहे कितना ही अल्प-बुद्धि व्यक्ति हो, कुछ न कुछ तो उसमें परीक्षा का भाव होगा ही। दूसरी ओर विशद्बुद्धि के लिए भी श्रद्धा
आवश्यक होगी ही। इसीलिए प्राचार्यों ने बताया है कि आगम और प्रमाण, दूसरे शब्दों में श्रद्धा और युक्ति-इन दोनों के समन्वय से ही दृष्टि में पूर्णता आती है अन्यथा सत्यदर्शन की दृष्टि अधूरी ही रहेगी।
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ है-"इन्द्रिय विषय और अतीन्द्रिय-विषय । ऐन्द्रियिक पदार्थों को जानने के लिए युक्ति और अतीन्द्रिय पदार्थों को