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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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श्रागम सिद्धान्त माना है। फलितार्थ यह हुआ कि यथार्थज्ञाता एवं यथार्थ बक्ता से हमें जो कुछ मिला, वही सत्य है । दार्शनिक परम्परा का इतिहास
स्वतन्त्र विचारकों का खयाल है कि इस दार्शनिक परम्परा के श्राधार पर ही भारत में अन्ध विश्वास जम्मा । प्रत्येक मनुष्य के पास बुद्धि है, तर्क है, अनुभव है, फिर वह क्यों ऐसा स्वीकार करे कि यह अमुक व्यक्ति या अमुक शास्त्र की वाणी है, इसलिए सत्य ही है । वह क्यों न अपनी ज्ञान-शक्ति का लाभ उठाए । महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा- किसी ग्रन्थ को स्वतः प्रमाण न मानना, अन्यथा बुद्धि और अनुभव की प्रामाणिकता जाती रहेगी । इस उलझन को पार करने के लिए हमें दर्शन विकास के इतिहास पर विहंगम दृष्टि डालनी होगी । दर्शन की उत्पत्ति
वैदिकों का दर्शन-युग उपनिषदकाल से शुरू होता है। आधुनिक अन्वेषकों के मतानुसार लगभग चार हजार वर्ष पूर्व उपनिषदों का निर्माण होने लग गया था । लोकमान्य तिलकने मैत्र्युपनिषद् का रचनाकाल ईसा से पूर्व १८८० से १६८० के बीच माना है। बौद्धों का दार्शनिक युग ईसासे पूर्व पूर्वी शताब्दी में शुरू होता है। जैनों के उपलब्ध दर्शन का युग भी यही है, यदि हम भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा को इससे न जोड़े। यहाँ यह बता देना अनावश्यक न होगा कि हमने जिस दार्शनिक युग का उल्लेख किया है, उसका दर्शन की उत्पत्ति से सम्बन्ध है । वस्तुवृत्त्या वह निर्दिष्टकाल आगमप्रणयनकाल है । किन्तु दर्शन की उत्पत्ति श्रागमों से हुई है, इस पर थोड़ा आगे चल कर कुछ विशद रूप में बताया जाएगा। इसलिए प्रस्तुत विषय में उस युग को दार्शनिक युग की संज्ञा दी गई है। दार्शनिक ग्रन्थों की रचना तथा पुष्ट प्रामाणिक परम्पराओं के अनुसार तो बेदिक, जैन और बौद्ध प्रायः सभी का दर्शन-युग लगभग विक्रम की पहली शताब्दी या उससे एक शती पूर्व प्रारम्भ होता है। उससे पहले का युग श्रागम-युग ठहरता है । उसमें ऋषि उपदेश देते गए और वे उनके उपदेश 'आगम' बनते गए। अपने- अपने प्रवर्तक ऋषि को सत्य-द्रष्टा कहकर उनके अनुयायियों द्वारा उनका समर्थन किया