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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
होता इसलिए "पहले सत्य को जानो और बाद में उसे जीवन में उतारो"
भारतीय दार्शनिक पाश्चात्य दार्शनिक की तरह केवल सत्य का शान ही नहीं चाहता, वह चाहता है मोक्ष। मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है"जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करूं । जो अमृतत्व का साधन हो वही मुझे बताओ२४ ।” कमलावती इक्षुकार को सावधान करती है"हे नरदेव ! धर्म के सिवाय अन्य कोई भी वस्तु प्राण नहीं है २५।" मैत्रेयी अपने पति से मोक्ष के साधन-भूत अध्यात्म-शान की याचना करती है और कमलावती अपने पति को धर्म का महत्त्व बताती है। इस प्रकार धर्म की श्रात्मा में प्रविष्ट होकर वह आत्मवाद अध्यात्मवाद बन जाता है। यही खर उपनिषद् के ऋषियों की वाणी में से निकला-"आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है।" तत्त्व यही है कि दर्शन का प्रारम्भ आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष में। सत्य का शान उसका शरीर है और सत्य का आचरण उसकी आत्मा। सत्य को परिभाषा
प्रश्न यह रहता है कि सत्य क्या है जैन आगम कहते हैं- "वहीं सत्य है, जो जिन ( प्राप्त और वीतराग) ने कहा है२७ ” वैदिक सिद्धान्त में भी यही लिखा है-"आत्मा जैसे गूढ तत्त्व का क्षीणदोषयति (वीतराग) ही साक्षात्कार करते हैं२८ ।” उनकी वाणी अध्यात्म-वादी के लिए प्रमाण है। क्योंकि वीतराग अन्यथा भाषी नहीं होते। जैसे कहा है-"असत्य बोलने के मूल कारण तीन है-राग, द्वेष और मोह। जो व्यक्ति क्षीणदोष हैदोषत्रयी से मुक्त हो चुका, वह फिर कभी असत्य नहीं बोलता।"
"वीतराग अन्यथा भाषी नहीं होते" यह हमारे प्रतिपाद्य का दूसरा पहलू है। इससे पहले उन्हें पदार्थ-समूह का यथार्थ शान होना आवश्यक है। यथार्थ ज्ञान उसी को होता है, जो निरावरण हो । निराबरण यानी यथार्थद्रष्टा, वीतराग-वाक्य यानी यथार्थवक्तृत्व, ये दो प्रतिशाएं हमारी सत्यमूलक धारणा की समानान्तर रेखाए हैं। इन्हीं के आधार पर हमने प्राप्त के उपदेश को