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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
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यह प्राध्यामिक रक्त्रयी है। इसीके श्राधार पर जैन दर्शन कहता हैआस्तव हेय है और संबर उपादेय । बौद्ध दर्शन के अनुसार दुःख हेव है और I मार्ग उपादेय । वेदान्त के अनुसार अविद्या हेय है और विद्या उपादेय । इसी 1 प्रकार सभी दर्शन हेय और उपादेय की सूची लिए हुए चलते हैं।
हेय और उपादेय की जो अनुभूति है, वह दर्शन है। अगम्य की गम्य बनाने वाली विचार पद्धति भी दर्शन है । इस परिभाषा के अनुसार महापुरुषों ( श्रासजनों ) की विचार पद्धति भी दर्शन है। तत्त्व-उपलब्धि की दृष्टि से दर्शन एक है। विचार पद्धतियों की दृष्टि से वे ( दर्शन ) अनेक हैं । दर्शन की प्रणाली
तत्त्व पर विचार करने के
दर्शन की प्रणाली युक्ति पर आधारित होती है। दर्शन तत्त्व के गुणों से सम्बन्ध रखता है, इसलिए उसे तत्त्व का विज्ञान कहना चाहिए। युक्ति विचार का विज्ञान है। लिए युक्ति या तर्क का महारा अपेक्षित होता है। दर्शन के क्षेत्र में तार्किक प्रणाली के द्वारा पदार्थ श्रात्मा, अनात्मा, गति, स्थिति, समय, अवकाश, पुद्गल, जीवन, मस्तिष्क, जगत्, ईश्वर आदि तथ्यों की व्याख्या, श्रालोचना, स्पष्टीकरण या परीक्षा की जाती है। इसीलिए एकांगी दृष्टि से दर्शन की अनेक परिभाषाएँ मिलती है :
(१) जीवन की बौद्धिक मीमांसा दर्शन है।
(२) जीवन की आलोचना दर्शन है। आदि आदि ।
इनमें पूर्णता नहीं किन्तु अपूर्णता में भी सत्यांश अवश्य है।
आस्तिक दर्शनों की भित्ति-आत्मवाद
" अनेक व्यक्ति यह नहीं जानते कि मैं कहाँ से लाया हूँ ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं ? मैं कौन हूँ ? यहाँ से फिर कहाँ जाऊगा ?"
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" इस जिशासा से दर्शन का जन्म होता है। धर्म-दर्शन की मूल - भित्ति आत्मा है । यदि श्रात्मा है तो वह है, नहीं तो नहीं। यहीं से श्रात्म-तत्त्व श्रास्तिकों का श्रात्मवाद बन जाता है। बाद की स्थापना के लिए दर्शन और उसकी सचाई के लिए धर्म का विस्तार होता है।
"aarat क्या करेगा जब कि उसे श्रेय और पाप का ज्ञान भी नहीं