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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व दृष्टि में गीत-गान विलाप मात्र हैं, नाटक विडम्बनाएं हैं, आभूषण भार हैं और काम-भोग दुःख।
सौन्दर्य की कल्पना दृश्य वस्तु में होती है। वह वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-इस चतुष्टय से सम्पन्न होती है। वर्णादि चतुष्टय किसी में शुभ परिणमनवाला होता है और किसी में अशुभ परिणमनवाला। इसलिए सौन्दर्य प्रसौन्दर्य, अच्छाई बुराई, प्रियता-अप्रियता, उपादेयता हेयता आदि के निर्णय में वस्तु की योग्यता निमित्त बनती है। वस्तु के शुभ-अशुभ परमाणु मन के परमाणुओं को प्रभावित करते हैं। जिस व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक परमाणुओं के साथ वस्तु के परमाणुओं का साम्य होता है, वह व्यक्ति उस वस्तु के प्रति आकृष्ट हो जाता है। दोनों का वैषम्य हो तो आकर्षण नहीं बनता। यह साम्य और वैषम्य देश, काल और परिस्थिति आदि के समवाय पर निर्भर है। एक देश, काल और परिस्थिति में जिम व्यकि के लिए जो वस्तु हेय होती है। वही दूसरे देश, काल और परिस्थिति में उपादेय बन जाती है। यह व्यावहारिक दृष्टि है। परमार्थ-दृष्टि में अात्मा ही सुन्दर है, वही अच्छी, प्रिय, और उपादेय है। आत्म व्यतिरिक्त सब वस्तु हेय हैं। इसलिए फलितार्थ होता है-'दर्शनं स्वात्मनिश्चितिः'-अपनी आत्मा का जो निश्चय है, वही दर्शन है।
मूल्य के प्रत्येक निर्णय में श्रात्मा की सन्तुष्टि या असन्तुष्टि अन्तर्निहित होती है। अशुद्ध दशा में आत्मा का सन्तोप या असन्तोष भी अशुद्ध होता है। इसलिए इस दशा में होने वाला मूल्यांकन नितान्त बौद्धिक या नितान्त व्यावहारिक होता है । वह शिवत्व के अनुकूल नहीं होता। शिवत्व के साधन तीन हैं-सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और मम्यक् चारित्र। यह श्रद्धा, ज्ञान
और आचार की त्रिवेणी ही शिवत्व के अनुकूल है। यह आत्मा की परिक्रमा किये चलती है।
दर्शन आत्मा का निश्चय है।
बोधनात्मा का शान है। • . चारित्र आत्मा में स्थिति या रमण है।
यही तत्त्व प्राचार्य शंकर के शब्दों में मिलता है-"मावगतिहि पुरुषार्थः निशेषसंसारबीजः, अविद्याधननिवर्हणात् । तस्माद् ब्रह्म विजिशासितव्यम् ।"