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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व (१९९ सादि, सान्त होती है। अनादि, अनन्त नहीं."। पुद्गल में अगर वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिण्ड बन जाता और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं करपाते। प्राणी-जगत् के प्रति परमाणु का जितना भी कार्य है, वह सब परमाणुसमुदयनन्य है और साफ कहा जाए तो अनन्त परमाणु स्कन्ध ही प्राणीजगत् के लिए उपयोगी हैं । स्कन्ध-भेद की प्रक्रिया के कुछ उदाहरण दो परमाणु-पुद्गल के मेल से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है और दिप्रदेशी स्कन्ध के भेद से दो परमाणु हो जाते हैं । ___ तीन परमाणु मिलने से त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है और उनके अलगाव में दो विकल्प हो सकते हैं-तीन परमाणु अथवा एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध । चार परमाणु के समुदय से चतुःप्रदेशी स्कन्ध बनता है और उसके भेद के चार विकल्प होते हैं - १-एक परमाणु और एक त्रिप्रदेशी स्कन्ध । २-दो द्विप्रदेशी स्कन्ध । ३-दो पृथक्-पृथक् परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध । ४-चारौं पृथक-पृथक परमाणु । पुद्गल में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पुद्गल शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। द्रव्यार्थतया शाश्वत है और पर्यायरूप में अशाश्वत । परमाणु-पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अचरम है। यानी परमाणु संघात रूप में परिणत होकर भी पुनः परमाणु बन जाता है। इसलिए द्रव्यत्व की दृष्टि से चरम नहीं है। क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चरम भी होता है और अचरम भी ८१ । पुद्गल की द्विविधा परिणति पुद्गल की परिणति दो प्रकार की होती है -
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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