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________________ - 950 जैन दर्शन के मौलिक तत्व जीव आधार है और शरीर उसका प्राधेय । कर्म संसारी जीव का आधार है और संसारी जीव उसका आधेय। जीब-अजीव (भाषा-वर्गणा, मन-वर्गणा और शरीर-वर्गणा ) का संग्राहक है। कर्म संसारी जीव का संग्राहक है । तात्पर्य यह है-कर्म से बंधा हुअा जीव ही सशरीर होता है। वही चलता, फिरता, बोलता और सोचता है। अचेतन जगत् से चेतन जगत् की जो विलक्षणताएं हैं, वे जीव और पुद्गल के संयोग से होती है। जितना भी वैभाविक परिवर्तन या दृश्य रूपान्तर है, यह सब इन्हीं की संयोग-दशा का परिणाम है। जीव और पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों का आपस में संग्राह्य-संग्राहक भाव नहीं है। लोक-स्थिति में जीव और पुद्गल का संग्राह्य-संग्राहक भाव माना गया है। यह परिवर्तन है। परिवर्तन का अर्थ है-उत्पाद और विनाश । ___जैन दर्शन सर्वथा असृष्टिवादी भी नहीं है। वह परिवर्तनात्मक दृष्टिवादी भी है। सृष्टिवाद के दो विचार-पक्ष हैं। एक विचार असत् से सत् की सृष्टि मानता है। दूसरा सत् से सत् की सृष्टि मानता है। जैन दर्शन दूसरे प्रकार का सृष्टिवादी है। कई दर्शन चेतन से अचेतन२३ और कई अचेतन से चेतन की सृष्टि मानते हैं ।३। जैन दर्शन का मत इन दोनों के पक्ष में नहीं है। जैन दर्शन सृष्टि के बारे में वैदिक ऋषि की भांति संदिग्ध भी नहीं है । चेतन से अचेतन अथवा अचेतन से चेतन की सृष्टि नहीं होती। दोनों अनादि-अनन्त है। विश्व का वर्गीकरण अरस्तू ने विश्व का वर्गीकरण (१) द्रव्य (२) गुण (३) परिमाण (४) सम्बन्ध (५) दिशा (६) काल (७) श्रासन (८) स्थिति (e) कर्म (१०) परिणाम-इन दस पदार्थों में किया। वैशेषिक द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-इन छह तत्वों में करते हैं। मैनष्टि से विश्व बह द्रव्यों में बीकत है। यह द्रव्य है-धर्म, अधर्म,
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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