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'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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चलते अधिक भाग पार कर गए। बाकी रहा वह भाग कम है-वे चले उसका असंख्यातवां भाग बाकी रहा है। जितना भाग चलना बाकी रहा है उससे असंख्यात् गुणा भाग पार कर चुके हैं। यह लोक इतना बड़ा है । काल और भाव की दृष्टि से लोक अनन्त है। ऐसा कोई काल नहीं, जिसमें लोक का अस्तित्व न हो " |
लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में सदा रहेगा- इसलिए काल-लोक अनन्त है । लोक में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की पर्याएं अनन्त हैं तथा बादर-स्कन्धों की गुरु लघु पर्याएं, सूक्ष स्कन्धों और श्रमूतं द्रव्यों की गुरु लघु पर्या अनन्त हैं। इसलिए भाव-लोक अनन्त है I
लोक- अलोक का पौर्वापर्य
आर्य रोह-- भगवन् ! पहले लोक और फिर अलोक बना अथवा पहले लोक और फिर लोक बना !
नहीं हैं
भगवान् - रोह ! ये दोनों शाश्वत हैं। इनमें पहले पीछे का क्रम ૨. ] लोक- स्थिति
गौतम ने पूछा-भंते! लोक स्थिति कितने प्रकार की है ?
भगवान् गौतम ! लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं । वे यों हैं :
(१) वायु श्राकाश पर टिकी हुई है।
(२) समुद्र वायु पर टिका हुआ है ।
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(३) पृथ्वी समुद्र पर टिकी हुई है। (४) त्रस-स्थावर जीव पृथ्वी पर टिके हुए हैं।
(५) अजीव-जीव के आश्रित हैं ।
(६) सकर्म-जीव कर्म के प्राश्रित हैं।
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(७) अजीव जीवों द्वारा संगृहीत है । (८) जीव कर्म-संगृहीत हैं आकाश, पवन, जल और पृथ्वी - ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के श्राधाराधेय भाव से बनी हुई है । संसारी जीव और जीव (पुदूगल) में श्राधाराधेय भाव और संग्राह्य-संग्राहक भाव ये दोनों है।