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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व उसका कोई विभाग नहीं होता। लोकाकाश तीन भागों में विभक्त है:ऊर्च लोक, अधो लोक और मध्य लोक । लोक चौदह राजू लम्बा है। उसमें मंचा लोक सात राजू से कुछ कम है। तिरछा लोक अठारह सौ योजन प्रमाण है। नीचा लोक सात राज से कुछ अधिक है।
जिस प्रकार एक ही आकाश धर्म-अधर्म के द्वारा लोक और अलोक इन दो भागों में बंटता है, ठीक वैसे ही इनके द्वारा लोकाकाश के तीन विभाग और प्रत्येक विभाग की भिन्न-भिन्न श्राकृतियां बनती हैं। धर्म और अधर्म कहीं विस्तृत हैं और कहीं संकुचित । नीचे की और विस्तृत रूप से ज्यात है अतः अधोलोक का आकार ओंधे किये हुए शराव जैसा बनता है। मध्यलोक में वे कृश रूप में हैं, इसलिए उनका आकार विना किनारी वाली झालर के समान हो जाता है। ऊपर की और वे फिर कुछ-कुछ विस्तृत होते चले गए हैं, इसलिए उर्ध्व लोक का आकार उध्वं मुख मृदंग जैसा होता है। अलोकाकाश में दूसरा कोई द्रव्य नहीं, इसलिए उसकी कोई प्राकृति नहीं बनती। लोकाकाश की अधिक से अधिक मोटाई सात राजू की है। लोक चार प्रकार का है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक'५ । द्रव्यलोक पंचास्तिकायमय एक है, इसलिए वह सांत है। लोक की परिधि असंख्य योजन कोडाकोड़ी की है, इसलिए क्षेत्रलोक भी सात है। . सापेक्षवाद के आविष्कर्ता प्रो० आइन्स्टीन ने लोक का व्यास ( Diametre) एक करोड़ अस्सी लाख प्रकाश वर्ष माना है। "एक प्रकाश वर्ष दूरी को कहते हैं जो प्रकाश की किरण १,८६,००० मील प्रति सेकण्ड के हिसाब से एक वर्ष में तय करती है।"
भगवान् महावीर ने देवताओं की "शीघ्रगति” की कल्पना से लोक की मोटाई को समझाया है। जैसे छह देवता लोक का अन्त लेने के लिए शीघ्र गति से छहों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊंची और नीची) में चले ठीक उसी समय एक सेठ के घर में एक हजार वर्ष की आयु वाला एक पुत्र जन्मा...उसकी आयु समास हो गई। उसके बाद हजार वर्ष की आयु वाले उसके बेटे-पोते हुए । इस प्रकार सात. पीढियां बीत गई। उनके नाम, गोत्र भी मिट गए, तब तक वे देवता चलते रहे, फिर भी लोक के अन्त तक नहीं पहुंचे। हाँ, वे चलते.