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________________ १५६ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व उसका अभिप्राय यही है कि सर्वघाती स्पर्धकों का विपाकोदय नहीं रहता। देशघाती स्पर्धकों का विपाकोदय गुणों के प्रगट होने में बाधा नहीं डालता। इसलिए यहाँ उसकी अपेक्षा नहीं की गई। क्षयोपशम की कुछेक रूपान्तर के साथ तीन व्याख्याएं हमारे सामने श्राती हैं-- (१) घाती कर्म का विपाकोदय नहीं होना क्षयोपशम है - इससे मुख्यतया कर्म की अवस्था पर प्रकाश पड़ता है । (२) उदय में आये हुए घाती कर्म का क्षय होना, उपशम होना - विपाक रूप से उदय में न आना, प्रदेशोदय रहना क्षयोपशम है। इसमें प्रधानतया क्षयोपशम-दशा में होने वाले कर्मोदय का स्वरूप स्पष्ट होता है । (३) सबंघाती स्पर्धकों का क्षय होना । सत्तारूप उपशम होना तथा देशघाती स्पर्धकों का उदय रहना क्षयोपशम है। इससे प्राधान्यतः क्षयोपशम के कार्य - आवारकशक्ति के नियमन का बोध होता है । सारांश सब का यही है कि--जिस कर्म दशा में क्षय, उपशम और उदयये तीनों बातें मिलें, वह क्षयोपशम है । अथवा घाती कर्मों का जो प्रशिक प्रभाव है---क्षययुक्त उपशम है, वह क्षयोपशम है। क्षयोपशम में उदय रहता अवश्य है किन्तु उसका क्षयोपशम के फल पर कोई असर नहीं होता । इसलिए इस कर्म दशा को क्षय उपशम इन दो शब्दों के द्वारा ही व्यक्त किया है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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