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जैन दर्शन के मौलिक तत्व १५५ . अन्तराय के अंश-बिलय से प्रात्म-वीर्य का सीमित उदय होता है क्षयोपशम
पाठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय,-ये चार कर्म घाती है, और शेष चार अपाती। पाती कर्म आत्म-गुणों की साक्षात् धात करते हैं। इनकी अनुभाग-शक्ति का सीधा असर जीव के शान आदि गुणों पर होसा है, गुण-विकास रुकता है। अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है। इनकी अनुभाग-शक्ति का जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं होता। अघाती कर्मों का या तो उदय होता है या क्षय सर्वथा अमाव । इनके उदय से जीव का पौद्गलिक द्रव्य से सम्बन्ध जुड़ा रहता है। इन्हीं के उदय से आत्मा 'अमूर्तोऽपि मूर्त इव' रहती है। इनके क्षय से जीव का पौद्गलिक द्रव्य से सदा के लिए सर्वथा सम्बन्ध टूट जाता है। और इनका क्षय मुक्त अवस्था के पहले क्षण में होता है । घाती कर्मों के उदय से जीव के शान, दर्शन, सम्यक्त्व-चारित्र और वीर्य-शक्ति का विकास रुका रहता है। भिर भी उक्त गुणों का सर्वावरण नहीं होता । जहाँ इनका ) घातिक कर्मों का) उदय होता है, वहाँ अभाव भी। यदि ऐसा न हो, आत्मा के गुण पूर्णतया ढक जाएं तो जीव और अजीव में कोई अन्तर न रहे। इसी श्राशय से नन्दी में कहा है:"पूर्ण ज्ञान का अनन्तवां माग तोजीव मात्र के अनावृत रहता है, यदि वह बात हो जाए तो जीव अजीव बन जाए । मेघ कितना ही गहरा हो, फिर भी चांद
और सूरज की प्रभा कुछ न कुछ रहती है। यदि ऐसा न हो तो रात-दिन का विभाग ही मिट जाए।" पाती कर्म के दलिक दो प्रकार के होते हैं - देशघाती
और सर्वघाती । जिस कर्म-प्रकृति से आंशिक गुणों की घात होती है, वह देशपाती और जो पूर्ण गुणों की घात करे, वह सर्वघाती। देशघाती कर्म के स्पर्धक भी दो प्रकार के होते हैं-देशघाती स्पर्धक और सर्वघाती स्पर्धक । सर्वघाती स्पर्धकों का उदय रहने तक देश-गुण भी प्रगट नहीं होते। इसलिए श्रात्म-गुण का यत् किञ्चित् विकास होने में भी सर्वघाती स्पर्धकों का अभाव होना श्रावश्यक है, चाहे वह क्षयरूप हो या उपशमरूप । जहाँ सर्वघाती स्पर्धकों में कुछ का क्षय और कुछ का उपशम रहता है और देशघाती स्पर्धकों का उदय रहता है, उस कर्म-अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं । क्षयोपशम में विपाकोदय नहीं होता,