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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व . .. (१४९ रहता। पहले बन्धे हुए कर्मों की स्थिति और फल-शक्ति नष्ट कर, उन्हें शीन तोड़ डालने के लिए ही तपस्या की जाती है। पातंजलयोग भाष्य में भी अदृष्ट-जन्म-वेदनीय कर्म की तीन गतियां बताई है । उनमें "कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।" एक गति यह है। इसीको जैन-दृष्टि में उदीरणा कहा है। कर्म-मुक्ति की प्रक्रिया ___ कर्म-परमाणुओं के विकर्षण के साथ-साथ दूसरे कर्म-परमाणुओं का श्राकर्षण होता रहता है। किन्तु इससे मुक्ति होने में कोई बाधा नहीं आती। कर्म-सम्बन्ध के प्रधान साधन दो है-कषाय और योग । कषाय प्रबल होता है, तब कर्म-परमाणु आत्मा के साथ अधिक काल तक चिपके रहते हैं और तीव्र फल देते हैं। कषाय के मन्द होते ही उनकी स्थिति कम और फलशक्ति मन्द हो जाती है। ___ ज्यों-ज्यों कषाय मन्द होता है, त्यो त्यों निर्जरा अधिक होती है और पुण्य का बन्ध शिथिल होता जाता है। वीतराग के सिर्फ दो समय की स्थिति का बन्ध होता है। पहले क्षण में कर्म-परमाणु उसके साथ सम्बन्ध करते हैं, दूसरे क्षण में भोग लिए जाते हैं और तीसरे क्षण में वे उनसे बिछुड़ जाते हैं। चौदहवीं भूमिका में मन, वाणी और शरीर की सारी प्रक्रियाएं रुक जाती है। वहाँ केवल पूर्व-संचित कर्म का निर्जरण होता है, नये कर्म का बन्ध नहीं होता। अबन्ध-दशा में प्रात्मा शेष कर्मों को खपा मुक्त हो जाता है। कुछ व्यक्ति अल्प और अल्पतर और कुछ एक महत् और महत्तर कर्मसंचय को लिए हुए जन्म लेते हैं । उनकी साधना का क्रम और काल भी उसीके अनुरूप होता है । जैसे-अल्पकर्म-प्रत्ययात्-अल्प तप, अल्प वेदना, दीर्घ प्रवज्या (साधना काल)-भरत चकक्तीवत् । अल्पतर कर्म-प्रत्ययात्-अल्प तप, अल्प वेदना, अल्पतर प्रव्रज्यामरुदेवावत्। - महत्कर्म प्रत्ययात्-पोर तप, पोर वेदना, अस्प प्रज्या -राजकुमारवत्।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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