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जैन दर्शन के मौलिक तत्व महत्तरकम प्रत्ययात्-पोरतर तप, घोरतर वेदना, वीतर प्रवज्यासनत्कुमारवत् ॥1 अनादि का अन्त कैसे?
जो अनादि होता है, उसका अन्त नहीं होता, ऐसी दशा में अनादिकालीन कर्म-सम्बन्ध का अन्त कैसे हो सकता है ? यह ठीक, किन्तु इसमें बहुत कुछ समझने जैसा है। अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है
और जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति-विशेष पर यह लागू नहीं भी होता। प्रागभाव अनादि है, फिर भी उसका अन्त होता है। स्वर्ण और मृत्तिका का, पी, और दूध का सम्बन्ध अनादि है, फिर भी वे पृथक होते हैं। ऐसे ही
आत्मा और कर्म के अनादि-सम्बन्ध का अन्त होता है। यह ध्यान रहे कि इसका सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि है, व्यक्तिशः नहीं। आत्मा से जितने कर्म पुद्गल चिपटते हैं, वे सब अवधि सहित होते हैं। कोई भी एक कर्म अनादिकाल से आत्मा के साथ घुल मिलकर नहीं रहता। श्रात्मा मोक्षोचित सामग्री पा, अनासव बन जाती है, तब नये कमों का प्रवाह एक जाता है, संचित कर्म तपस्या द्वारा टूट जाते हैं, आत्मा मुक्त बन जाती है। लेश्या
लेश्या का अर्थ है-पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला जीव का अध्यवसाय-परिणाम, विचार। आत्मा चेतन है, जड़स्वरूप से सर्वथा पृथक है, फिर भी संसार-दशा में इसका जड़द्रव्य ( पुदगल) के साथ गहरा संसर्ग रहता है, इसीलिए जड़ व्यजन्य परिणामों का जीव पर असर हुए बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से जीव के विचार प्रभावित होते हैं, वे भी द्रव्य-लेश्या कहलाते हैं। द्रव्य-लेश्याएं पौद्गलिक है, इसलिए इनमें वर्ण, गन्ध, रस
और स्पर्श होते हैं। लेश्याओं का नामकरण द्रव्य-लेश्याओं के रंग के प्राचार पर हुना है, जैसे कृष्ण-लेश्या, नील लेश्या आदि-आदि । पहली तीन लेश्याएं अप्रशस्त लेश्याएं हैं। इनके वर्ण आदि चारों गुण अशुभ होते हैं। उत्तरवती सीन लेश्याओं के वर्ग प्रादि चारों शुभ होते हैं, इसलिए वे प्रशस्त होती है। खान-पान, स्थान और बाहरी वातावरण एवं वायुमण्डल का शरीर और मन पर असर होता है, यह प्रायः मम्मत-सी बात है। जैसा भन्न पेशा मन'