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१३ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
आधार भी यही दृष्टि है ।११। वस्तुतः सकाम और अकाम तप होता है, निर्जरा नहीं। निर्जरा आत्म-शुद्धि है। उसमें मात्रा का तारतम्य होता है, किन्तु स्वरूप का भेद नहीं होता। आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन
कर्म की मुख्य दो अवस्थाएं है-बन्ध और उदय। दूसरे शब्दों में ग्रहण और फल । "कर्म ग्रहण करने में जीव स्वतन्त्र है और उसका फल भोगने में परतन्त्र । जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतन्त्र हैइच्छानुसार चढ़ता है। प्रमादवश गिर जाए तो वह गिरने में स्वतंत्र नहीं है।" इच्छा से गिरना नहीं चाहता, फिरभी गिर जाता है, इसलिये गिरने में परतन्त्र है। इसी प्रकार विष खाने में स्वतन्त्र है और उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र । एक रोगी व्यक्ति भी गरिष्ठ से गरिष्ठ पदार्थ खा सकता है, किन्तु उसके फलस्वरूप होने वाले अजीर्ण से नहीं बच सकता। कर्म-फल भोगने में जीव स्वतन्त्र है, यह कथन प्रायिक है। कहीं-कहीं जीव उसमें स्वतन्त्र भी होते हैं। जीव और कर्म का संघर्ण चलता रहता है ११४ । जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होती है, तब वह कमों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहुलता होती है, तब जीव उनसे दब जाना है। इसलिए यह मानना होता है कि कहीं जीव कम के अधीन है और कहीं कम जीव के अधीन'१५
कर्म दो प्रकार के होते हैं-(१) निकाचित-जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। (२) दलिक-जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है।
सोपक्रम-जो कर्म उपचार साध्य होता है। निरूपक्रम-जिसका कोई प्रतिकार नहीं होता, जिसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता।
निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा जीव कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की अपेक्षा दोनों वाते हैं-जहाँ जीव उसको अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, वहाँ वह उस कर्म के अधीन होता है और जहाँ जीव प्रबल धृति, मनोबल, शरीरबल आदि सामग्री की सहायता से सत्प्रयत्न करता है, वहाँ कर्म उसके अधीन होता है। उदयकाल से पूर्व कर्म को उदय में ला, तोड़ डालना, उसकी स्थिति और रस को मन्द कर देना, यह सब इसी स्थिति में हो सकता है। यदि यह न होता तो तपस्या करने का कोई अर्थ ही नहीं