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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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उदीरणा करे तो उस ( उदीरणा ) की कहीं भी परिसमाति नहीं होती । इसलिए उदीर्ण की उदीरणा का निषेध किया गया है।
२ - जिन कर्म- पुद्गलों की उदीरणा सुदूर भविष्य में होने वाली है, अथवा जिनकी उदीरणा नहीं हो होने वाली है, उन अनुदीर्ण कर्म पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती ।
३- जो कर्म- पुद्गल उदय में आ चुके ( उदयानन्तर पश्चात् कृत ), वे सामर्थ्यहीन बन गए, इसलिए उनकी भी उदीरणा नहीं होती ।
४ - जो कर्म-पुदगल वर्तमान में उदीरणा-योग्य ( श्रनुदीर्ण- उदीरणा भव्य ) हैं, उन्हींकी उदीरणा होती है । उदीरणा का हेतु पुरुषार्थ
कर्म के काल-प्रास उदय ( स्वाभाविक उदय ) में नए पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती । बन्ध-स्थिति पूरी होती है, कर्म-पुद्गल अपने आप उदय में आ जाते हैं। उदीरणा द्वारा उन्हें स्थिति-क्षय से पहले उदय में लाया जाता है। इसलिए इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है ।
गौतम ने पूछा - "भगवन्! अनुदीर्ण, उदीरणा भव्य ( कर्म- पुद्गलों ) की जो उदीरणा होती है, वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम के द्वारा होती है अथवा अनुत्थान, कर्म, अबल, और वीर्य, पुरुषकार
अपराक्रम के द्वारा ?”
भगवान् ने कहा - " गौतम । जीव उत्थान आदि के द्वारा अनुदी, उदीरणा भव्य ( कर्म-पुद्गलों ) की उदीरणा करता है, किन्तु अनुत्थान आदि के द्वारा उदीरणा नहीं करता १०"
यह भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है । पुरुषार्थ द्वारा कर्म में परिवर्तन किया जा सकता है, यह स्पष्ट है।
उदीरक पुरुषार्थ के दो रूप :-- कर्म की उदीरणा 'करण' के द्वारा होती है। करण का अर्थ है 'योग' । योग के तीन प्रकार हैं- (१) शारीरिक व्यापार ( २ ) वाचिक व्यापार (३) मानसिक व्यापार । उत्थान आदि इन्हीं के प्रकार है, योग शुभ
और