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________________ १४२ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १६ ९७ सुकृत और दुष्कृत दोनों को छोड़ देता है ।" "आसन संसार का हेतु है और संवर मोक्ष का, जैनी दृष्टि का बस यही सार है ।" श्रभयदेवसूरि ने स्थानांग की टीका में श्रास्तव, बन्ध, पुण्य और पाप को संसार भ्रमण के हेतु कहा है १८ 1 आचार्य भिक्षु ने इसे यों समझाया है कि "पुण्य से भोग मिलते हैं, जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भोगों की इच्छा करता है " । भोग की इच्छा से संसार बढ़ता है । 1 इसका निगमन यों होना चाहिए कि योगी अवस्था (पूर्ण समाधि - दशा ) से पूर्व सत्प्रवृत्ति के साथ पुण्य-बन्ध अनिवार्य रूप से होता है। फिर भी पुण्य की इच्छा से कोई भी सत्प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक सत्प्रवृत्ति का लक्ष्य होना चाहिए - मोक्ष - श्रात्म विकास । भारतीय दर्शनों का वही चरम लक्ष्य है । लौकिक अभ्युदय धर्म का श्रानुसंगिक फल है-धर्म के साथ अपने श्राप फलने वाला है। यह शाश्वतिक या चरम लक्ष्य नहीं है। इसी सिद्धान्त को लेकर कई व्यक्ति भारतीय दर्शनों पर यह आक्षेप करते हैं कि उन्होंने लौकिक अभ्युदय की नितान्त उपेक्षा की, पर सही अर्थ में बात यह नहीं है ऊपर की पंक्तियों का विवेचन धार्मिक दृष्टिकोण का है, लौकिक वृत्तियों में रहने वाले अभ्युदय की सर्वथा उपेक्षा कर ही कैसे सकते हैं। हां फिरभी भारतीय एकान्त- भौतिकता से बहुत बचे हैं। उन्होंने प्रेय और श्रेय को एक नहीं माना १०० । अभ्युदय को ही सब कुछ मानने वाले भौतिकवादियों ने युग को कितना जटिल बना दिया, इसे कौन अनुभव नहीं करता । उदीरणा-योग्य कर्म 1 गौतम ने पूछा- भगवन् ! जीव उदीर्ण ( कर्म-पुद्गलों ) की उदीरणा करता है । अनुदीर्ण ( कर्म - पुद्गलों ) की उदीरणा करता है ? अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा भव्य ( कर्म - पुद्गलों ) की उदीरणा करता है ? अथवा उदयानन्तर पश्चात् कृत ( कर्म पुद्गलों ) की उदीरणा करता है ? भगवान् ने कहा- गौतम ! जीव उदीरण की उदीया नहीं करता, अनुदीर्ण की उदीरणा नहीं करता, अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा भव्य की उदीरणा करता है। उदयानन्तर पश्चात् कृतं कर्म की उबीरणा नहीं करता १०१। १- उीरित ( उदीर्ण उदीरणा कि.ये हुए ) कर्म: पुलों की फिर से
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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