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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व [ १४१ यही होता है कि महर्षि पतंजलि ने भी पुण्य-पाप की स्वतन्त्र उत्पत्ति नहीं मानी है। जैन विचारों के साथ उन्हें तोलें तो कोई अन्तर नहीं आता । तुलना के लिए देखें : जैन 1 श्ररुव शुभयोग अशुभ योग T 1 पुण्य पाप वेदनीय नाम गोत्र श्रायु पातंजल योग 1 क्लेश मूल धर्म 1 पुण्य जाति आयु भोग धर्म पाय श्रायु जाति वेदनीय नाम गोत्र श्रायु भोग कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्ध- दृष्टि की अपेक्षा प्रतिक्रमण (ग्रात्मालोचन), प्रायश्चित्त को पुण्यबन्ध का हेतु होने के कारण विष कहा है १० 1 श्राचार्य भिक्षु ने कहा है- "पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है " " श्रागम कहते हैं-" इहलोक, परलोक, पूजा- श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो, केवल आत्म-शुद्धि के लिए करो १२ ।” यही बात बेदान्त के श्राचायों ने कही है कि "मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ३ ” क्योंकि आत्म-साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार भ्रमण के हेतु हैं । भगवान् महावीर ने कहा है- "पुण्य और पाप इन I दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है ४ ।” “जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है १५ गीता भी यहीं कहती है- "बुद्धिमान् १ - जाति जैन परिभाषा में नाम कर्म की एक प्रकृति के साथ उसकी तुलना होती है। -भोग- वेदनीय ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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