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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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यही होता है कि महर्षि पतंजलि ने भी पुण्य-पाप की स्वतन्त्र उत्पत्ति नहीं मानी है। जैन विचारों के साथ उन्हें तोलें तो कोई अन्तर नहीं आता ।
तुलना के लिए देखें :
जैन
1
श्ररुव
शुभयोग अशुभ योग
T
1
पुण्य
पाप
वेदनीय नाम गोत्र श्रायु
पातंजल योग
1
क्लेश मूल
धर्म
1
पुण्य
जाति आयु
भोग
धर्म
पाय
श्रायु जाति
वेदनीय नाम गोत्र श्रायु भोग कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्ध- दृष्टि की अपेक्षा प्रतिक्रमण (ग्रात्मालोचन), प्रायश्चित्त को पुण्यबन्ध का हेतु होने के कारण विष कहा है १०
1
श्राचार्य भिक्षु ने कहा है- "पुण्य की इच्छा करने से पाप का बन्ध होता है " " श्रागम कहते हैं-" इहलोक, परलोक, पूजा- श्लाघा आदि के लिए धर्म मत करो, केवल आत्म-शुद्धि के लिए करो १२ ।” यही बात बेदान्त के श्राचायों ने कही है कि "मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ३ ” क्योंकि आत्म-साधक का लक्ष्य मोक्ष होता है और पुण्य संसार भ्रमण के हेतु हैं । भगवान् महावीर ने कहा है- "पुण्य और पाप इन I दोनों के क्षय से मुक्ति मिलती है ४ ।” “जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करता है १५ गीता भी यहीं कहती है- "बुद्धिमान्
१ - जाति जैन परिभाषा में नाम कर्म की एक प्रकृति के साथ उसकी तुलना होती है।
-भोग- वेदनीय ।