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________________ १४४ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व शुभ दोनों प्रकार का होता है। श्राखव चतुष्टय-रहित योग शुभ और आसवचतुष्टय सहित योग अशुभ | शुभ योग तपस्या है। सत् प्रवृत्ति है । वह उदीरणा का हेतु है । क्रोध, मान, माया, और लोभ की प्रवृत्ति अशुभ योग है। उससे भी उदीरणा होती है १०३ | पुरुषार्थ भाग्य को बदल सकता है वर्तमान की दृष्टि से पुरुषार्थं अबन्ध्य कभी नहीं होता । अतीत की दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी । वर्तमान का पुरुषार्थं अतीत के पुरुषार्थ से दुर्बल होता है तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा नहीं कर सकता । वर्तमान का पुरुषार्थं अतीत के पुरुषार्थ से प्रबल होता है तो वह अतीत के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है । कर्म की बन्धन और उदय —ये दो ही अवस्थाएं होती तो कर्मों का बन्ध होता और वेदना के बाद वे निवीर्य हो श्रात्मा से अलग हो जाते। परिवर्तन को कोई अवकाश नहीं मिलता । कर्म की अवस्थाएं इन दो के अतिरिक्त और भी हैं ( १ ) अपवर्तना के द्वारा कर्म स्थिति का अल्पीकरण ( स्थितिघात ) और रस का मन्दीकरण ( रस घात ) होता है । (२) उद्वर्तना के द्वारा कर्म-स्थिति का दीर्घीकरण और रस का तीब्रीकरण होता है । (३) उदीरणा के द्वारा लम्बे समय के बाद तीव्र भाव से उदय में आने बाले कर्म तत्काल और मन्द-भाव से उदय में आ जाते हैं। 1 ( ४ ) एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता है। एक कर्म शुभ होता है, उसका विपाक अशुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है, उसका विपाक शुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है १०४ । जो कर्म शुभ रूप में ही बंधता है और शुभ रूप में ही उदित होता है, वह शुभ और शुभ- विपाक वाला होता है। अशुभ रूप में उदित होता है, वह शुभ जो कर्म अशुभ रूप में बन्धता है और शुभ रूप में उदित होता है, वह अशुभ और शुभ- विपाक बाला होता है। जो जो कर्म शुभ रूप में बम्धता है और और अशुभ विपाक वाला होता है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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