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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
करता है। इसके अनुभाव आठ है-मनोश शब्द, मनोश रूप, मनोश गन्ध, मनोश रस, मनोश स्पर्श, मनः-मुखता, वाङ-सुखता, काय-सुखता। . (स) असात पेवनीय कर्म के उदय से जीव दुःख की अनुभूति करता है। इसके अनुमाव पाठ है-अमनोश शब्द, अमनोश रूप, अमनोश रस, अमनोश गन्ध, अमनोश स्पर्थ, मनोदुःखता, वाक्-दुःखता, काय दुःखता।
(४) मोह-कर्म के उदय से जीव मिथ्या दृष्टि और चारित्रहीन बनता है। इसके अनुभाव पांच हैं-सम्यक्त्व वेदनीय, मिथ्यात्व-वेदनीय, सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय, कषाय-वेदनीय, नोकपाय-वेदनीय ।
(५) आयु-कर्म के उदय से जीव अमृक समय तक अमुक प्रकार का जीवन जीता है। इसके अनुभाव चार है-नरयिकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, देवायु।
(६) क-शुभनाम कर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक उत्कर्ष पाता है । इसके अनुभाव चौदह है-इष्ट शब्द, इष्ट रूप, इष्ट गन्ध, इष्ट रस, इष्ट स्पर्श, इष्ट गति, इष्ट स्थिति, इट लावण्य, इष्ट यश-कीर्ति, इष्ट उत्थानकर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम; इष्ट स्वरता, कान्त स्वरता, प्रिय स्वरता, मनोश स्वरता।
ख-अशुभ नाम-कर्म के उदय से जीव शारीरिक और वाचिक अपकर्ष पाता है। इसके अनुभाव चौदह है-अनिष्ट शब्द, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गन्ध, अनिष्ट रस, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, अनिष्टलावण्य, अनिष्ट यशो कीर्ति, अनिष्ट उत्थान-कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम; अनिष्ट स्वरता, हीन स्वरता, दीन स्वरता। अमनोज्ञ स्वरता।
(७) क-उच्च-गोत्र-कर्म के उदय से जीव विशिष्ट बनता है। इसके अनुमाव पाठ है-जाति-विशिष्टता, कुल विशिष्टता, बल-विशिष्टता, रूपविशिष्टता, तपो विशिष्टता, भुत-विशिष्टता, लाभ-विशिष्टता, ऐश्वर्य विशिष्टता।
ख-नीच गोत्र कर्म के उदय से जीव हीन बनता है। इसके अनुभाष पाठ हैं-जाति-विहीनता, कुल-विहीनता, बल-विहीनता, रूप-विहीनता, सपो बिहीनता, श्रुत-विहीनता, लाभ-विहीनता, ऐश्वर्य विहीनता।
(5) अन्तराय कर्म के उदय से भर्तमान सब्ध वस्तु का विनाश और अभ्य