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. जैन दर्शन के मौलिक तत्वं , the मस्तु के अागामी-पथ का अवरोध होता है। इसके अनुभाव पांच । दानान्सराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय। फल की प्रक्रिया ___ कर्म जड़-अचेतन है। तब वह जीव को नियमित फल कैसे दे सकता है ! यह प्रश्न न्याय-दर्शन के प्रणेता गौतम ऋषि के 'ईश्वर' के अभ्युपगम का हेतु बना । इसीलिए उन्होंने ईश्वर को कर्म-फल का नियन्ता बताया, जिसका उल्लेख कुछ पहले किया जा चुका है। जैन दर्शन कर्म-फल का नियमन करने के लिए ईश्वर को आवश्यक नहीं समझता। कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम होता है ५८ | वह द्रव्य ५९, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति", स्थिति, पुदूगल-परिमाण आदि उदयानुकूल सामग्री से विपाक प्रदर्शन में समर्थ हो जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है, उससे उनका फलोपभोग होता है। सही अर्थ में आत्मा अपने किये का अपने आप फल भोगता है,६१ कर्म-परमाणु सहकारी या सचेतक का कार्य करते हैं। विष
और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजन को कुछ भी शान नहीं होता, 'फिर भी श्रात्मा का संयोग पा उनकी वैसी परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही खाने वाले को इष्ट या अनिष्ट फल मिल जाता है। विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कमों की फलदान-शक्ति के बारे में कोई सन्देह नहीं रहता। पुण्य-पाप
मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया से आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है। उससे कम-परमाणु आत्मा की ओर खिंचते है।
क्रिया शुभ होती है तो शुभकर्म-परमाणु और वह अशुभ होती है तो अशुभकर्म-परमाणु आत्मा से आ चिपकते हैं। पुण्य और पाप दोनों विजा. तीय तत्त्व है। इसलिए ये दोनों प्रात्मा की परतन्त्रता के हेतु है। आचार्यों ने पुण्य कर्म की सोने और पाप-कर्म की लोहे की बेड़ी से तुलना की है ।
स्वतन्त्रता के इच्छुक मुमुक्षु के लिए थे दोनों हेय है। मोक्ष का हेतु रनभयो (सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्पर चारित्र) है जो व्यक्ति इस सत्त्व को