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जैन दर्शन के मौलिक तत्व १३५ .. मदिरा पी, उन्माद छा गया-शानावरण का विषाक-उदय हुआ। यह । पुद्गल परिणमन हेतुक विपाक-उदय है।
इस प्रकार अनेक हेतुओं से कर्मों का विपाक-उदय होता है । अगर वे हेतु नहीं मिलते हैं तो उन कर्मों का विपाक-रूप में उदय नहीं होता। उदय का एक दुसरा प्रकार और है। वह है-प्रदेश-उदय। इसमें कर्म-फल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता। यह कर्म-वेदन की अस्पष्टानुभूति वाली दशा है। जो कर्म-बन्ध होता है, वह अवश्य भोगा जाता है।
गौतम ने पूछा-भगवन् ! किये हुए पाप कर्म भोगे बिना नहीं छूटते, क्या यह सच है ?
भगवान्-हाँ, गौतम ! यह सच है। गौतम-कैसे भगवन् !
भगवान् गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए है-प्रदेश-कर्म५५ और अनुभाग-कर्म ५६ । जो प्रदेश-कर्म हैं, वे नियमतः (अवश्य ही भोगे जाते हैं। जो अनुभाग-कर्म हैं वे अनुभाग (विपाक ) रूप में कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं भोगे जाते ५॥ कर्म के उदय से क्या होता है ?
(१) ज्ञानावरण के उदय से जीव ज्ञातव्य विषय को नहीं जानता, जिज्ञासु होने पर भी नहीं जानता। जानकर भी नहीं जानता-पहले जानकर फिर नहीं जानता। उसका शान आवृत्त हो जाता है। इसके अनुभाव दस है-श्रोत्रावरण, श्रोत्र-विज्ञानावरण, नेत्रावरण, नेत्र-विज्ञानावरण, प्राणावरण, घाण-विज्ञानावरण, रसावरण, रस-विज्ञानावरण, स्पर्शावरण, स्पर्श-विज्ञानावरण।
(२) दर्शनावरण के उदय से जीव द्रष्टव्य-विषय को नहीं देखता, विक्षु ( देखने का इच्छुक ) होने पर भी नहीं देखता। उसका दर्शन आच्छन्न हो जाता है। इसके अनुभाव नौ है-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्षि, चतु-दर्शनावरण, अचक्षु-दर्शनावरण, अवधि-दर्शनावरण, केवलदर्शनावरण।
(३) क-साब बेदनीय कर्म के उदय से जीव सुख की अनुभूति