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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
आकस्मिक घटनाओं की सम्भावना तथा तपस्या की प्रयोजकता ही नष्ट हो जाती है। किन्तु अपवर्तना के द्वारा कर्म की उदीरणा या अप्राप्त काल उदय होता है । इसलिए आकस्मिक घटनाएं भी कर्म सिद्धान्त के प्रतिसन्देह पैदा नहीं करती । तपस्या की सफलता का भी यही हेतु है ।
सहेतुक और निर्हेतुक उदय :--
कर्म का परिपाक और उदय अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी, सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी । कोई बाहरी कारण नहीं मिला, क्रोध- वेदनीय-पुद्गलों के तीन विपाक से अपने आप क्रोध आ गया—यह उनका निर्हेतुक उदय है ५० । इसी प्रकार हास्य, ५ १ भय, वेद ( विकार ) और कषाय ५२ के पुद्गलों का भी दोनों प्रकार का उदय होता है " ३ । अपने आप उदय में आने वाले कर्म के हेतु
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गति हेतुक - उदय नरक गति में असात ( सुख ) का उदय तीव्र होता है । यह गति हेतुक विपाक उदय है ।
स्थिति-हेतुक - उदय - सर्वोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व-मोह का तीव्र उदय होता है । यह स्थिति-हेतुक विपाक उदय है ।
भवहेतुक उदय- य - दर्शनावरण ( जिसके उदय से नींद आती है ) सबके होता है, फिर भी नोंद मनुष्य और तिर्यच दोनों को आती है, देव और नरक को नहीं आती। यह भव ( जन्म ) हेतुक - विपाक- उदय है । गति-स्थिति और भव के निमित्त से कई कमों का अपने आप विपाक - उदय हो श्राता है । दूसरों द्वारा हृदय में आने वाले कर्म के हेतु
पुद्गल हेतुक - उदय - किसी ने पत्थर फेंका, चोट लगी, असात का उदय हो श्राया- यह दूसरों के द्वारा किया हुआ सात वेदनीय का पुद्गल हेतुक विपाक - उदय है
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किसी ने गाली दी, क्रोध आ गया, यह क्रोध-वेदनीय- पुद्गलों का सहेतुक विपाक - उदय है ।
पुद्गल परिणाम के द्वारा होने वाला उदय-भोजन किया, वह पचा नहीं अजीर्ण हो गया । उससे रोग पैदा हुआ, यह असात वेदनीय का विपाकउदय है ।