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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व [ १३३ मिथ्या दर्शन - शल्य - विरति श्रापातभद्र नहीं लगती किन्तु परिणाम मद्र होती है । कालोदायी ! यूं कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले होते हैं ।” उदय उदय का अर्थ है - काल मर्यादा का परिवर्तन । वस्तु की पहली अवस्था की काल मर्यादा पूरी होती है - यह उसका अनुदय है, दूसरी की काल मर्यादा का श्रारम्भ होता है - वह उसका उदय है । बन्धे हुए कर्म- पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक। ( कर्म पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना - विशेष ) प्रगट होने लगते हैं, वह उदय है४७ । उदय के दो रूप कर्म का उदय दो प्रकार का होता है । ( १ ) प्राप्त काल कर्म का उदय ( २ ) प्राप्त काल कर्म का उदय । कर्म का बन्ध होते ही उसमें विपाकप्रदर्शन की शक्ति नहीं हो जाती। वह निश्चित अवधि के पश्चात् ही पैदा होती है। कर्म की यह अवस्था अबाधा कहलाती है । उम समय कर्म का अवस्थान मात्र होता है किन्तु उनका कतृ 'त्व प्रगट नहीं होता। इसलिए वह कर्म का अवस्थान काल है। अबाधा का अर्थ है -- अन्तर । बन्ध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह अबाधाकाल है४८ । अबाधा-काल के द्वारा कर्म स्थिति के दो भाग हो जाते हैं। (१) श्रवस्थानकाल ( २ ) अनुभव - काल या निषेक-काल ४९ । अबाधा - काल के समय कोरा अवस्थान होता है, अनुभव नहीं । अनुभव अबाधा काल पूरा होने पर होता है । जितना अबाधा-काल होता है, उतना अनुभव - काल से अवस्थान-काल अधिक होता है। अबाधा-काल को छोड़कर विचार किया जाए तो श्रवस्थान और निषेक या अनुभव - ये दोनों सम-काल मर्यादा वाले 1 होते हैं । चिरकाल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तपस्या के द्वारा विफल बना थोड़े समय में भोग लिए जाते हैं । श्रात्मा शीघ्र उज्ज्वल बन जाती है । काल मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारब्ध होता है। वह प्राप्त काल उदय है। यदि स्वाभाविक पद्धति से ही कर्म उदय में आए हो
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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