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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
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मिथ्या दर्शन - शल्य - विरति श्रापातभद्र नहीं लगती किन्तु परिणाम मद्र होती है । कालोदायी ! यूं कल्याण-कर्म कल्याण-विपाक वाले होते हैं ।”
उदय
उदय का अर्थ है - काल मर्यादा का परिवर्तन । वस्तु की पहली अवस्था की काल मर्यादा पूरी होती है - यह उसका अनुदय है, दूसरी की काल मर्यादा का श्रारम्भ होता है - वह उसका उदय है । बन्धे हुए कर्म- पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक। ( कर्म पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना - विशेष ) प्रगट होने लगते हैं, वह उदय है४७ ।
उदय के दो रूप
कर्म का उदय दो प्रकार का होता है । ( १ ) प्राप्त काल कर्म का उदय ( २ ) प्राप्त काल कर्म का उदय । कर्म का बन्ध होते ही उसमें विपाकप्रदर्शन की शक्ति नहीं हो जाती। वह निश्चित अवधि के पश्चात् ही पैदा होती है। कर्म की यह अवस्था अबाधा कहलाती है । उम समय कर्म का अवस्थान मात्र होता है किन्तु उनका कतृ 'त्व प्रगट नहीं होता। इसलिए वह कर्म का अवस्थान काल है। अबाधा का अर्थ है -- अन्तर । बन्ध और उदय
के अन्तर का जो काल है, वह अबाधाकाल है४८ ।
अबाधा-काल के द्वारा कर्म स्थिति के दो भाग हो जाते हैं। (१) श्रवस्थानकाल ( २ ) अनुभव - काल या निषेक-काल ४९ । अबाधा - काल के समय कोरा अवस्थान होता है, अनुभव नहीं । अनुभव अबाधा काल पूरा होने पर होता है । जितना अबाधा-काल होता है, उतना अनुभव - काल से अवस्थान-काल अधिक होता है। अबाधा-काल को छोड़कर विचार किया जाए तो श्रवस्थान और निषेक या अनुभव - ये दोनों सम-काल मर्यादा वाले
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होते हैं । चिरकाल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तपस्या के द्वारा विफल बना थोड़े समय में भोग लिए जाते हैं । श्रात्मा शीघ्र उज्ज्वल बन जाती है ।
काल मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारब्ध होता है। वह प्राप्त काल उदय है। यदि स्वाभाविक पद्धति से ही कर्म उदय में आए हो