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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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ये तीनों बन्धन की उत्तरकालीन अवस्थाएं हैं।
( १ ) आपाक-प्राप्त ( थोड़ा पका हुआ ) ( २ ) विपाक प्राप्त - (पूरा पका हुआ) (३) फल-प्रास ( फल देने में समर्थ ) -- ये तीनों उदय सम्बद्ध हैं । इनके बाद वह कर्म उदय प्राप्त होता है ।
फल विपाक
एक समय की बात है, भगवान् राजगृह के गुणशील नामक चैत्य में समवसृत थे। उस समय कालोदायी अणगार भगवान् के पास आये, वन्दना नमस्कार कर बोले -- "भगवन्। जीवों के किए हुए पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है ?
भगवान् - "कालोदायी ! होता है ।"
कालोदायी — “भगवन् ! यह कैसे होता है ?"
भगवान् - "कालादायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ, स्थालीपाक-शुद्ध (परिपक्व ), अठारह प्रकार के व्यञ्जनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है, वह (भोजन) आपातभद्र (खाते समय अच्छा ) होता है, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें दुर्गन्ध पैदा होती है- है-वह परिणामभद्र नहीं होता । कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य ( अठारह प्रकार के पाप कर्म ) आपातभद्र और परिणाम विरस होते हैं । कालोदायी ! यूं पाप-कर्म पाप-विपाक वाले होते है ।"
कालोदायी - "भगवन् । जीवों के किए हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ?"
भगवान् -- "कालोदायी । होता है ।" ! कालोदायी - "भगवन् । कैसे होता है ?"
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भगवान् - " कालोदायी । जैसे कोई पुरुष मनोश, स्थालीपाक शुद्ध ( परिपक्व ), अठारह प्रकार के व्यजनों से परिपूर्ण, औषध- मिश्रित भोजन करता है, वह श्रापात भद्र नहीं लगता, किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है, त्यों-त्यों उसमें सुरूपता, सुवर्णता और सुखानुभूति उत्पन्न होती हैपरिणाम-भद्र होता है । कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात विरति यावत्
-वह