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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
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वेदना या निर्जरा के बीच भी उनकी अनेक अवस्थाएं बनती है। कर्म की सारी दशाएं अनेक रूपों में वर्णित हुई हैं।
प्रशापना के अनुसार कर्म की दशाएं - ( १ ) बद्ध
( २ ) स्पृष्ट
(३) बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट (४) संचित ( ५ ) चित ( ६ ) उपचित (७) आपाक प्राप्त (८) विपाक प्राप्त ( ६ ) फल प्राप्त ( १० ) उदय - प्राप्त ४३ ।
स्थानांग के अनुसार कर्म की दशाएं - ( १ ) चय (२) उपचय ( ३ ) बन्ध ( ४ ) उदीरणा ( ५ ) वेदना ( ६ ) निर्जरा ४४ |
भगवती के अनुसार कर्म की (३) उपचय ( ४ ) उदीरणा ( ५ (८) संक्रमण ( ६ ) नियति (१०) निकाचना ४५ 1
दशाएं - ( १ ) भेद (२) चय वेदना (६) निर्जरा (७) अपवर्तन
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( १ ) जीव की राग-द्वेषात्मक परिणति से कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गल 'बद्ध' कहलाते हैं।
( २ ) आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लेप पायें हुए कर्म-पुद्गल 'स्पृष्ट' कहलाते हैं ।
(३) श्रात्म- प्रदेशों के साथ-साथ दृढ़रूप में बन्धे हुए तथा गाढ स्पर्श से उन्हें छूए हुए (वेष्टित परिवेष्टित किये हुए ) कर्म - पुद्गल 'बद्ध - स्पृष्ट' कहलाते हैं ।
कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का कर्म-रूप में परिवर्तन, श्रात्मा के साथ उनका मिलन और आत्मा के साथ एकीभाव- ये तीनों बन्धकालीन अवस्थाएं हैं।
(४) कर्म का वाधा-काल या पकने का काल पूरा नहीं होता, तब तक वह फल देने योग्य नहीं बनता । श्रवाधा-काल बन्ध और उदय का आन्तरिक काल है । अबाधा-काल पूर्ण होने के पश्चात् फल देने योग्य निषेक बनते हैं । वह 'संचित' अवस्था है ।
(५) कर्मों की प्रदेश- हानि और रस-वृद्धि के रूप में रचना होती है, वह 'fer' अवस्था है ।
(६) संक्रमण के द्वारा जो कर्म का उपन्वय होता है, वह 'उपचित' अवस्था है।