SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व ( १३१ वेदना या निर्जरा के बीच भी उनकी अनेक अवस्थाएं बनती है। कर्म की सारी दशाएं अनेक रूपों में वर्णित हुई हैं। प्रशापना के अनुसार कर्म की दशाएं - ( १ ) बद्ध ( २ ) स्पृष्ट (३) बद्ध-स्पर्श-स्पृष्ट (४) संचित ( ५ ) चित ( ६ ) उपचित (७) आपाक प्राप्त (८) विपाक प्राप्त ( ६ ) फल प्राप्त ( १० ) उदय - प्राप्त ४३ । स्थानांग के अनुसार कर्म की दशाएं - ( १ ) चय (२) उपचय ( ३ ) बन्ध ( ४ ) उदीरणा ( ५ ) वेदना ( ६ ) निर्जरा ४४ | भगवती के अनुसार कर्म की (३) उपचय ( ४ ) उदीरणा ( ५ (८) संक्रमण ( ६ ) नियति (१०) निकाचना ४५ 1 दशाएं - ( १ ) भेद (२) चय वेदना (६) निर्जरा (७) अपवर्तन ) ( १ ) जीव की राग-द्वेषात्मक परिणति से कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गल 'बद्ध' कहलाते हैं। ( २ ) आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लेप पायें हुए कर्म-पुद्गल 'स्पृष्ट' कहलाते हैं । (३) श्रात्म- प्रदेशों के साथ-साथ दृढ़रूप में बन्धे हुए तथा गाढ स्पर्श से उन्हें छूए हुए (वेष्टित परिवेष्टित किये हुए ) कर्म - पुद्गल 'बद्ध - स्पृष्ट' कहलाते हैं । कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का कर्म-रूप में परिवर्तन, श्रात्मा के साथ उनका मिलन और आत्मा के साथ एकीभाव- ये तीनों बन्धकालीन अवस्थाएं हैं। (४) कर्म का वाधा-काल या पकने का काल पूरा नहीं होता, तब तक वह फल देने योग्य नहीं बनता । श्रवाधा-काल बन्ध और उदय का आन्तरिक काल है । अबाधा-काल पूर्ण होने के पश्चात् फल देने योग्य निषेक बनते हैं । वह 'संचित' अवस्था है । (५) कर्मों की प्रदेश- हानि और रस-वृद्धि के रूप में रचना होती है, वह 'fer' अवस्था है । (६) संक्रमण के द्वारा जो कर्म का उपन्वय होता है, वह 'उपचित' अवस्था है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy