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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व १२५ ] कर्म कौन बांधता है ? अकर्म के कर्म का बन्ध नहीं होता। पूर्व कर्म से बंधा हुआ जीब ही नए कर्मों का बन्ध करता है " I मोह कम के उदय से जीव-राग-द्वेष में परिणत होता है तब वह अशुभ कमों का बन्ध करता है 1 मोह-रहित प्रवृति करते समय शरीर नाम-कर्म के उदय से जीव शुभ कर्म का बन्ध करता है 33 | नए बन्धन का हेतु पूर्व बन्धन न हो तो अवद्ध (मुक्त) जीव भी कर्म से बन्धे बिना नहीं रह सकता । इस दृष्टि से यह सही है कि बंधा हुआ ही बंधता है, नए सिरे से नहीं । गौतम ने पूछा - " भगवन् ! दुःखी जीव दुःख से स्पष्ट होता है या दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है ३ ४ ?” भगवान ने कहा -- गौतम ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है, अदुःखी दुःख से स्पृष्ट नहीं होता । दुःख का स्पर्श, पर्यादान ( ग्रहण) उदीरणा, वेदना और निर्जरा दुखी जीव करता है, अदुखी जीव नहीं करता ३५ । गौतम ने पूछा - भगवन ! कर्म कौन बांधता है ? संयत, मयत अथवा संयतासंयत ३६ ? भगवान् ने कहा-- - गौतम ! असंयत, संयतासंयत और संगत- ये सब कर्म बन्ध करते हैं। दशवें गुण-स्थान के अधिकारी पुण्य और पाप दोनों का बन्ध करते हैं और ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान के अधिकारी केवल पुण्य का बन्ध करते हैं । कर्म-बन्ध कैसे ? गौतम - " भगवन् ! जीव कर्मबन्ध कैसे करता है ?” भगवान् - " गौतम ! ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शन-मोह का तीव्र उदय होता है 1 दर्शन-मोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है । मिथ्यात्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है । 3U
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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