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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व . [१२९ कर्म-बन्ध का मुख्य हेतु कषाय है। संक्षेप में कषाय के दो भेद है-राग और द्वेष । विस्तार में उसके चार भेद है-क्रोध, मान, माया, लोभ । इनके तारतम्य की चार रेखाएं हैं--(१) अनन्तानुबन्धी (२) अप्रत्याख्यान (३) प्रत्याख्यान और (४) संज्वलन। पुण्य बन्ध का हेतु
पुण्य-बन्ध का हेतु शुभ-योग (शरीर, वाणी और मन का शुभ व्यापार) है। कई प्राचार्य मन्द-कषाय से पुण्य-बन्ध होना मानते हैं। किन्तु श्राचार्य भिक्ष, इसे मान्य नहीं करते। उनके मतानुसार मन्द-कपाय से पुण्य का
आकर्षण नहीं होता । किन्तु कपाय की मन्दता से होने वाले शुभ-योग के समय नाम-कर्म के द्वारा उनका आकर्षण होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार शुभोपयोग एक अपराध है.' । सम्यक्र दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित-ये तीनों मुक्ति के हेतु हैं। इनके द्वारा कर्म का बन्ध नहीं होता। श्रात्मा का निश्चय (सम्यक-दर्शन) आत्मा का वोध ( सभ्यक ज्ञान ) और आत्मा में रमण ( सम्यक्-चारित्र)-ये बन्धन के निमित्त नहीं हो सकते ।।
जिम अंश में ये तीनों हैं, उस अंश में मुक्ति है। और जिस अंश में कषाय या नाम-कर्म का उदय है, उस अंश में बंधन है।
"सम्यक्त्व और चारित्र से देव गति के आयुष्य का बन्धन होता है"-ऐसे प्रकरण जो हैं, वे सापेक्ष हैं। इनका आशय यह है कि सम्यक्त्व और चारित्र की अवस्था में जो आयुष्य बन्धता है, वह देव-गति का ही बन्धता है। इसका श्राशय “सम्यक्त्व या चारित्र से देव-गति का आयुष्य बन्धता है" यह नहीं है।
पाप कर्म का विकर्षण (निर्जरण) और पुण्यकर्म का आकर्षण-ये दोनों विरोधी कार्य हैं। एक ही कारण से निष्पन्न होते तो इनमें विरोध आता। पर ऐसा नहीं होता। पाप कर्म के विकर्षण का कारण आत्मा की पवित्रता (कर्म-शास्त्र की भाषा में 'शुभयोग' का वह अंश, जो पूर्वार्जित पाप-कर्म के विलय से पवित्र बनता है ) है। पुण्य-कर्म के आकर्षण का कारण आत्मिक चंचलता। (कर्म-शास्त्र की भाषा में 'शुभ योग' का वह अंश जो नाम-कर्म