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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वं
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यह शुद्ध श्रात्मिक सामर्थ्य है । इसका बाह्य जगत् में कोई प्रयोग नहीं होता । आत्मा का बहिर-जगत् के साथ जो सम्बन्ध है, उसका माध्यम शरीर है । वह पुद्गल परमाणुओं का संगठित पुंज है । श्रात्मा और शरीर इन दोनों के संयोग से जो सामथ्यं पैदा होती है, उसे करण-वीर्य या क्रियात्मक शक्ति कहा जाता है। शरीरधारी जीव में यह सतत बनी रहती है । इसके द्वारा जीव में भावनात्मक या चैतन्य-प्रेरित क्रियात्मक कम्पन होता रहता है । कम्पन
चेतन वस्तु में भी होता है । किन्तु वह स्वाभाविक होता है । उनमें चैतन्य-प्रेरित कम्पन नहीं होता । चेतन में कम्पन का प्रेरक गूढ़ चैतन्य होता है । इसलिए इसके द्वारा विशेष स्थिति का निर्माण होता है। शरीर की आन्तरिक वर्गणा द्वारा निर्मित कम्पन में बाहरी पौद्गलिक धाराएं मिलकर आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा परिवर्तन करती रहती हैं।
क्रियात्मक शक्ति-जनित कम्पन के द्वारा आत्मा और कर्म परमाणुओं का संयोग होता है । इस प्रक्रिया को आम्रव कहा जाता है।
आत्मा के साथ संयुक्त कर्म योग्य परमाणु कर्म रूप में परिवर्तित होते हैंइस प्रक्रिया को बन्ध कहा जाता है ।
आत्मा और कर्म परमाणुओं का फिर वियोग होता है— इस प्रक्रिया को निर्जरा कहा जाता है ।
बन्ध, आव और निर्जरा के बीच की स्थिति है । आम्रव के द्वारा बाहरी पौद्गलिक धाराएं शरीर में आती हैं। निर्जरा के द्वारा वे फिर शरीर के बाहर चली जाती हैं। कर्म-परमाणुत्रों के शरीर में आने और फिर से चले जाने के बीच की दशा को संक्षेप में बन्ध कहा जाता है।
शुभ और अशुभ परिणाम श्रात्मा की क्रियात्मक शक्ति के प्रवाह हैं । ये जन रहते हैं। दोनों एक साथ नहीं। दोनों में से एक अवश्य रहता है ।
कर्म-शास्त्र की भाषा में शरीर - नाम-कर्म के उदय काल में चंचलता रहती
है
1 उसके द्वारा कर्म-परमाणुओं का आकर्षण होता है। शुभ परिणति के समय शुभ और अशुभ परिणति के समय अशुभ कर्म-परमाणुओं का श्राकर्षण होता है 39