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________________ 995] जैन दर्शन के मौलिक तस्व (१४) उपघात, नाम -- इस कर्म के उदय से विकृत बने हुए अपने ही अवयवों से जीव क्लेश पाता है। ( अथवा ) इसके उदय से जीव श्रात्म-हत्या करता है 1 (१५) पराघात - नाम - इसके उदय से जीव प्रतिपक्षी और प्रतिवादी द्वारा अपराजेय होता है। - (१६) श्रनुपूर्वी नाम २३ - विश्रेणि स्थित जन्मस्थान की प्राप्ति का हेतुभूत कर्म | (क) नरक - श्रानुपूर्वी - नाम - विश्रेणि स्थित नरक सम्बन्धी जन्मस्थान की प्राप्ति का हेतुभूत कर्म । (ख) तिर्यचानुपूर्वी नाम - विश्रेणि स्थित तिर्यच सम्बन्धी जन्मस्थान की प्राप्ति का हेतुभूत कर्म । (ग) मनुष्य - श्रानुपूर्वी - नाम - विश्रेणि स्थित मनुष्य-सम्बन्धी जन्मस्थान की प्राप्ति का हेतुभूत कर्म । 1 (घ) देव आनुपूर्वी - नाम - त्रिश्रेणि स्थित देव-सम्बन्धी जन्मस्थान की प्राप्ति का हेतुभूत कर्म । (१७) उच्छवास - नाम -- इसके उदय से जीव श्वास- उच्छ्वास लेता है । (१८) आतप नाम २४ इसके उदय से शरीर में से उष्ण प्रकाश निकलता है । (१६) उद्योत - नाम २५ ( २० ) विहायोगति नाम पड़ता है । इसके उदय से शरीर में से शीत- प्रकाश निकलता है। इसके उदय का जीव की चाल पर प्रभाव ( क ) प्रशस्त विहायोगति नाम- इसके उदय से जीव की चाल श्रेष्ठ होती है ( ख ) प्रशस्त विहायोगति नाम- इसके उदय से जीव की चाल खराब 1 " होती है। (२१) त्रस नाम- - इसके उदय से जीव चर ( इच्छापूर्वक गति करने वाले ) होते हैं।.
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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