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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
(२) नो-कषाय- वेदनीय
कषाय को उत्तेजित करने वाले कर्म-पुद्गल१ - हास्य -- सकारण या अकारण (बाहरी कारण के बिना भी ) हंसी
उत्पन्न करने वाले कर्म- पुद्गल ।
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२ - रति-सकारण या अकारण पौद्गलिक पदार्थों के प्रति रागउत्पन्न करने वाले कर्म - पुद्गल ।
३- अरति -:
-सकारण या अकारण पौद्गलिक पदार्थों के प्रति द्वेषउत्पन्न करने वाले या संयम में अरुचि उत्पन्न करने वाले कर्मपुद्गल ।
४ – शोक - सकारण या अकारण शोक उत्पन्न करने वाले कर्म-पुद्गल । ५-भय-सकारण या अकारण भय उत्पन्न करने वाले कर्म- पुद्गल । ६---जुगुप्सा ——सकारण या अकारण घृणा उत्पन्न करने वाले कर्मपुद्गल ।
७ - स्त्री वेद - पुरुष के साथ भोग की अभिलाषा उत्पन्न करने वाले कर्म-पुद्गल ।
८- पुरुष - वेद - स्त्री के साथ भोग की अभिलाषा - उत्पन्न करने वाले कर्म - पुद् गल |
E -- नपुंसक - वेद - स्त्री - पुरुष दोनों के साथ भोग की अभिलाषा उत्पन्न करने वाले कर्म-पुद्गल ।
५ - श्रायु - जीवन के निमित्त कर्म-पुद्गल -
( १ ) नरकायु -नरक -गति में टिके रहने के निमिस कर्म-पुद् गल । (२) तिर्यञ्चायु - तिर्येच गति में टिके रहने के निमित्त कर्म-पुद्गल । (३) मनुष्यायु- मनुष्य-गति में टिके रहने के निमित्त कर्म- पुद्गल । (४) देवायु - देव - गति में टिके रहने के निमित्त कर्म-पुद्गल ।
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- नाम - जीवन की विविध सामग्री की उपलब्धि के हेतुभूत कर्म-पुद्गल (१) गति - नाम - जन्म-सम्बन्धी विविधता की उपलिब्ध के निमित्त कर्म- पुद्गल ।
(क) निरय गति नाम - नारक जीवन दुःखमय दशा की उपलब्धि के निमित्त कर्म-पुद्गल ।