________________
जैन दर्शन के मौलिक तत्व [१०९ भगवान् ने कहा-"माविक-पुष ! भाव-बन्ध दो प्रकार का है:--. (१) मूल प्रकृति-बन्ध (२) उत्तर-प्रकृति-बन्ध ""
बन्ध आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है । वह चतरूप है:(१) प्रकृति (२) स्थिति (३) अनुभाग (४) प्रदेश १
. बन्ध का अर्थ है--आत्मा और कर्म का संयोग और कर्म का निर्मापणव्यवस्थाकरण ११ ग्रहण के समय कर्म-पुदगल अविभक्त होते हैं। ग्रहण के पश्चात् वे आत्म-प्रदेशों के साथ एकीभूत होते हैं। यह प्रदेश-बन्ध (या एकीभाव की व्यवस्था ) है।
इसके साथ-साथ वे कर्म-परमाणु कार्य-भेद के अनुसार आठ वर्गों में बंट जाते हैं। इसका नाम प्रकृति-बन्ध (स्वमाव-व्यवस्था ) है। कर्म की मूल प्रकृतियां (स्वभाव ) पाठ हैं-(१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयुष्य (६) नाम (७) गोत्र (८) अन्तराय । संक्षिप्त-विभाग :(१) ज्ञानावरण (क) देशज्ञानावरण (ख) सर्वज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (क) देश दर्शनावरण (ख) सर्व दर्शनावरण (३) वेदनीय (क) सात-वेदनीय (ख ) असात-वेदनीय (४) मोहनीय (क ) दर्शन-मोहनीय (ख) चारित्र-मोहनीय (५) आयुष्य (क) श्रद्धायु (ख) भवायु (६) नाम (क) शुभ-नाम (ख) अशुभ-नाम (७) गोत्र
(क) उच्च-गोत्र (ख) नीच-गोत्र (८) अन्तराय (क) प्रत्युत्पन्न-विनाशी
(स) पिहित आगामीपय २० विस्तृत-विभाग :१-शानावरण-शान को प्रावृत्त करने वाले कर्म पुद्गल । (१) भाभिनिवोधिक शानावरण-इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाले शान
को मार करने वाले कर्म-पुद्गल ।